Tuesday, November 8, 2011

बड़ी-बड़ी काली आँखों के सपने...

वो करती थी मुझसे
अपने सपनों की बातें
मेरे सीने से लिपट कर,
और चौंधियां जाती थी
उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें
ढेर सारी खुशियों से...
उसका चहकना वैसा ही होता,
जैसे पहली बार
किसी चिड़िया का बच्चा
अपने पंख फैला कर
फुदकता हुआ निकल पड़ता हो
नापने सारा आसमान...

उसके सपने भी
कुछ ऐसे ही मदमस्त होते,
हाथ बढ़ा कर आसमान छूने की चाहत
किसे नहीं होती आखिर...
पर उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें,
बयां कर देती
उसके सपनों की बुनियाद को,
उम्मीद को, हौसले को...

फिर अचानक होता था,
उसके सपनों पर प्रतिघात
और बिखर जाते थे
उसके मासूम, प्यारे से सपने
ठीक वैसे ही,
जैसे कि एक नाज़ुक गुलाब को
जब तोड़ा जाता है डाली से
जबरदस्ती, ज़ोर लगा कर,
तो छन से बिखर जाता है वो
कई पत्तियों में...

लेकिन हर बार
वो फिर से करती कोशिश,
समेटती अपने सपने
और बसाती उनको
अपनी बड़ी-बड़ी काली आँखों में...
फिर से हौसला देती
अपने सपनों की बुनियाद को,
एक नयी उमंग से
और उठ खड़ी होती
इन सपनों के दम पे,
अपनी नियति से लड़ने को...

Monday, November 7, 2011

फ़र्क...

मैं, मैं हूँ
तुम, तुम हो...
मैं कभी "तुम" नहीं हो सकती,
तुम कभी "मैं" नहीं हो सकते.
मेरे और तुम्हारे बीच
सिर्फ़ एक शरीर की संरचना का फ़र्क नहीं,
बल्कि फ़र्क 
सोच का, संवेदनाओं का,
सपनों का, भावनाओं का,
हृदय और मस्तिष्क से
काम करने की प्रवृत्ति का...
ये कुछ फ़र्क
तुम्हें "तुम" बनाते हैं
और मुझे "मैं"...
तुम जहाँ कुछ खोना नहीं जानते,
वहीं मैं कुछ पाना नहीं जानती.
क्योंकि तुम कभी कुछ खोते नहीं,
और मैं हर बार कुछ पाती नहीं...

Wednesday, October 12, 2011

ज़िद...

बरसती शाम में
मिट्टी की महकती खुशबू
कभी करती है इशारा,
मेरे घर के आँगन में
तेरे आने का...
गरजते हुए बादल
सुना देते हैं मुझे
तेरे क़दमों की आहट...
मचल उठता है
ये बावरा सा मन
तेरे चेहरे की बस
एक झलक पाने को...
तभी तो ख्यालों में सजी
तेरी मासूम सी सूरत,
उड़ते-बिखरते बादलों में
बनती-बिगड़ती दिखती है...
फिर तुझे पाना,
तुझे हौले से छूना,
मेरे लिए बन जाता है
एक नादान से बच्चे की
शरारत भरी ज़िद...

Friday, September 16, 2011

दूरियां...

१)

कभी नापा न गया
मेरे घर की देहरी से
तेरे घर के दरवाज़े की
उस लम्बाई को...
इतना लम्बा रास्ता
जो कभी कम तो न हुआ,
पर बड़ा दिए थे उसने
तेरे मेरे दरम्यान
वो फासले...
हौले से उन फासलों ने
वो काम कर दिया,
जिससे भुला दिए गए
सब रूहानी जज़्बात
और पैदा कर दी गयी
कभी न मिटने वाली
दूरियां...



२)

ये सख्त सी धरती
और वो खाली सा आसमान,
कैसे महसूस करते हैं
अपने बीच की दूरियां...
शायद उनको भी लगता होगा
कि कहीं किसी ऐसी जगह
जहाँ एक क्षितिज होगा,
वहां हो पायेगा उनका मिलन...
पर वो चाह कर भी
नहीं पाट पाते
अपने बीच की
दूरियां...

Wednesday, September 14, 2011

देखना है...

ख़्वाबों को सच होते हुए देखना है
फ़लक को करीब से छू कर देखना है

काँटों ने चुभन दी तो हम संभल गए
फूलों की छुवन से हमें रोकर देखना है

बरसात के पानी से है आँगन भरा हुआ
कागज़ की एक कश्ती को उतारकर देखना है

भीड़ में ज़माने की कई चेहरे नज़र आये
किस गली में कौन चोर है, यार देखना है

आईने में खुद को देखा है तमाम उम्र
अब तेरी नज़र से अपना अक्स देखना है

उससे मेरा रिश्ता महका किया बरसों तलक
कैसे कहेगा अजनबी, मुझको ये देखना है

खताओं के बदले सज़ा का रिवाज़ पुराना है
इम्तिहाने-इश्क से गुज़र कर देखना है

सह गए तेरे संग मोहब्बत के रंजो-ग़म
अब अकेले इस राह पे मर कर देखना है

Friday, September 9, 2011

उसकी कहानी...

वो सिसक रही थी,
घुट रही थी कहीं अपने ही भीतर...
शरीर पर पड़े थे निशान
कहीं चोट के, कहीं ज़ख्म के,
टांको ने सी तो दिए थे घाव
पर नहीं सी पाया
टूटे सपने, टूटे अरमानों को...

आज वो खड़ी थी चौराहे पर
जहाँ भीड़ में भी वो तनहा थी...
जिसने छोड़ दिया था उसे
ऐसी हालत पर,
वो कहने को उसका अपना था
पर कितना अपना था,
इसकी ख़बर किसी को ना थी...

आज आईने ने भी
इनकार कर दिया था उसे पहचानने से...
सुर्ख लाल जोड़े में लिपटी
सजी धजी थी वो,
जब आईने ने उसका स्वागत
मुस्कुरा के किया था
उस खुशनसीब दिन में...

पर, काले घेरों में
अंदर तक धंसी, बुझी हुयी सी
रोती आँखें, सूजे हुए होंठ,
ज़ख्मों से भरा चेहरा
जो मुरझा चुका था,
लाख कोशिशों के बाद भी आज
आइना ना पहचान सका...

वो चाहती थी कुछ कहना
पर उसकी आवाज़ को
ना मिला कोई सुनने वाला
और दबा दी गयी उसकी आवाज़...
जैसे धर्म के नाम पर बलि देते वक़्त
मिमिया के रह जाती है
एक मासूम सी बकरी...

वो पूछना चाहती थी सबसे
कि उसे सज़ा मिली तो क्यूँ ???
एक औरत होना क्या
एक औरत का सबसे बड़ा गुनाह है ???
पर उसे नहीं मिला कोई जवाब,
सबसे अकेले वो बस रोती रही...
फिर भी अनकही अनसुनी रह गयी
उसकी कहानी...

Wednesday, September 7, 2011

मुझको सज़ा मिली...


मेरे ग़म ने तो मुझको हमेशा सहारा दिया

तेरी खुशियों को माँगा तो मुझको सज़ा मिली


हर तरफ से बस अँधेरे ने डराया मुझको

दिल जला के रौशनी की तो मुझको सज़ा मिली


उस तरफ कोई रास्ता ना गया जहाँ मंज़िल थी मेरी

इक भटकी सी मंज़िल चुनी तो मुझको सज़ा मिली


ना चाहा था खुद को धोखे में रखना कभी

पर एक सच को छुपाया तो मुझको सज़ा मिली


लफ्ज़, ख्याल, सपने, अरमान, सब खोते चले गए

फिर तन्हाई का सहारा लिया तो मुझको सज़ा मिली


ना ख्वाहिश चाँद-सितारों की, ना चाहा था गुल्ज़ारों को

बस एक पत्थर की पूजा की तो मुझको सज़ा मिली


मेरा आशियाना हरदम उजड़ता रहा तूफानों से

फिर भी मैं बस मुस्कायी तो मुझको सज़ा मिली


मेरी मुहब्बत पे तुझसे कोई सवाल करे ये मंज़ूर ना था

जो दिल में मैंने मुहब्बत छुपायी तो मुझको सज़ा मिली

Thursday, August 11, 2011

क्षणिकाएं...

पतझड़ का मौसम

महकते जीवन में,
बरसों से तेरी चाहत ने
तेरी  यादों ने,
खिलाये कई फूल गुलमोहर के...
आज तू नहीं,
तेरी चाह नहीं,
तेरी याद नहीं,
तेरे ख़्वाब नहीं...
ज़िंदगी भी बस यूँ ही
धीरे-धीरे कट रही है ऐसे,
जिसे देख कर
कोई भी कह दे कि
बिखर गए हैं
फूल गुलमोहर के
और आ गया है
मेरे जीवन में
पतझड़ का मौसम...



अधूरी तस्वीर

बस कहीं से
एक और रंग मिल जाये,
तो बरसों से
अधूरी रही ये तस्वीर
पूर्णता का आयाम पा लेगी...
शायद
जो हल्का पड़ा रंग था,
वो भी कुछ गहरा जाये
बदले हुए रंग से...
आ जाये कुछ निखार
बेरंग सी तस्वीर में,
हो जाये वो तस्वीर पूरी
और फिर,
शब्द फूट पड़ें
उस मौन पड़ी
अधूरी तस्वीर में...

Monday, August 8, 2011

काश...

उड़ते पंछी को देख कर सोचा था मैंने,
काश, ये पंख कोई ला दे मुझे...

बरसों धंसी रही हूँ ज़मीन पर मैं,
काश, ज़रा ऊपर कोई उठा दे मुझे...

संजोये हुए ख़्वाब जो पूरे ना हो सके,
काश, उन्हें करके पूरा कोई हंसा दे मुझे...

बहती हवा सा बहना चाहा था मैंने,
काश, मेरी डोर हटा के कोई उड़ा दे मुझे...

मैं इक नए ज़माने में कदम बढ़ा लूं ज़रा,
काश, वहां से करके इशारा कोई बुला दे मुझे...

समुन्दर में उठती लहरें थमती नहीं किसी के लिए,
काश, उफनती लहरों में चलना कोई सिखा दे मुझे...

अंधेरों से भरी दीवारें मेरे मन के भीतर की,
काश, जला के लौ दीये की कोई उजाला दे मुझे...

मन में उठते तूफानों से पलकों को आराम नहीं,
काश, कि गा कर मीठी लोरी कोई सुला दे मुझे...

Thursday, August 4, 2011

नींद...

कई दिन से
वो सोया नहीं था...
नसीब में नहीं थी उसके
सर छुपाने को छत,
आराम करने को बिस्तर
और पापी पेट की भूख मिटाने को
दो जून की रोटी...
भूखे पेट ने छीन ली
उसकी नींद, उसका चैन...
करवटें बदलते कटती थी
उसकी सारी रातें...
 
जागते हुए, भटकते हुए,
एक दिन मिला उसे आशियाना
बिना छत का, दीवारों का
जहाँ बस रात कटती थी,
तारों की चादर
और खुले आसमान के नीचे...
 
जो दीवार और छत के बने घरों में रहते,
वो उसके आशियाने को
फूटपाथ कहते थे,
पर उसे फ़र्क नहीं पड़ा कभी...
क्योंकि इसी फूटपाथ ने
उसे नींद दी,
चैन की नींद...
 
कई दिन से जगी उसकी आँखें
फूटपाथ में लेटते ही
बोझिल होने लगती...
आज वो गरीब होके भी
शायद दुनिया में खुद को
औरों से अमीर समझता होगा...
बड़े-बड़े महलों में, घर में
आज प्यार नहीं, अपनापन नहीं,
चैन की नींद नहीं, सुकून नहीं,
भागते-दौड़ते कटती ज़िन्दगी ने
सबसे पहले नींद ही छीनी...
 
पर,
वो गरीब
तेज़ रफ़्तार से भागती
चमचमाती गाड़ियों के शोर में भी
चैन की नींद
सोता था फूटपाथ में...
वो गरीब था,
पर दिन भर मेहनत मजदूरी कर
रात को मैली फटी चादर ओढ़े
मज़े से सोता था,
क्योंकि उसे नींद आती थी
जो शायद पैसों के पीछे भागते,
ऐशो-आराम तलबगार लोगों को
अब नसीब नहीं होती...

Sunday, July 24, 2011

तुम्हारी अभिलाषा...

तुम्हारे सिवा बाकि नहीं रही
मेरी कोई और अभिलाषा...

मेरे सपनों की कल्पना भी जैसे
दूर तक भटकने के बाद,
तुम पर ही आकर ठहर सी गयी है...
शायद तुम्हारा स्पर्श ही
मेरे सपनों को यथार्थ बनाता है...

मेरे जीवन-संगीत का सुर भी
तुम्हें सोच कर, तुम्हें चाह कर
छेड़ देता है एक मधुर तान...
शायद तुम्हारा ख्याल ही मेरे
सुरों को संगीत देता है
और मेरे जीवन को झंकृत करता है...

सावन में बरसता रिमझिम पानी,
जैसे पल भर में मिटा देता है
बरसों से अतृप्त धरती की प्यास को,
तुमने भी कुछ वैसे ही
भिगो दिया है मेरा सूखा आँचल...
शायद मेरे मन की अतृप्त प्यास को
तुम्हारे सिवा कोई समझ नहीं सकता...

हर एक क्षण में तुम्हारा व्यक्तित्व
मुझे अचंभित करता है...
न जाने क्यूँ एक अलग सा खिंचाव,
एक अलग सा सम्मोहन है तुम में...
जबकि तुम्हारी आँखों में
कोई रहस्य नज़र नहीं आता...
वहां बस एक मासूम सी, शोखी ली हुयी
चंचलता नज़र आती है...
शायद तुम्हारी यही चंचलता
जीवन में नयी चमक देती है
और मेरे भीतर के बचपन को
कभी मरने नहीं देती...

हाँ मुझे है तुम्हारी अभिलाषा,
क्योंकि तुम्हारा साथ कभी भी
मुझे भटकने नहीं देता...
तुम्हारा कोमल सा, नरम सा स्पर्श
मुझे कोई तकलीफ नहीं देता...
तुम्हारा मेरे जीवन में होना
मुझे कभी शुन्य नहीं होने देता...
शायद ये तुम्हारी अभिलाषा ही है,
जो मेरे जीवन को संपूर्ण बनाती है...

Sunday, May 8, 2011

माँ...

माँ,
एक ऐसा शब्द
जो समेटे है अपने आप में एक दुनिया,
जो बाँट दे निःस्वार्थ भाव से सारी खुशियाँ...
माँ,
एक ऐसा शब्द
जो है सहनशीलता की निशानी,
झेलती आई है पीड़ा सदियों पुरानी...

हर इंसान का अस्तित्व माँ ने बनाया है,
फिर क्यों इंसान
अपनी माँ को ही छलता आया है??
लोगों की इस भीड़ में,
दुनिया की इस लडाई में,
अपनी माँ को ही भुलाता आया है
और अपनी हर गलती के लिए,
माँ को ही रुलाता आया है...

फिर भी
माँ हर दुःख सहती है,
दिखाने के लिए ही सही
पर हमेशा खुश रहती है...
पर क्यों,
और आखिर क्यों??

क्योंकि
वो तो बस माँ है,
ममता का जीता-जागता संसार है...

Tuesday, May 3, 2011

प्रतीक्षा...

ना जाने कब

इन पलकों को आराम मिलेगा,

दरवाज़े पर नज़रें गड़ाये रहने से...

कब पड़ेगा पहला कदम तुम्हारा

मेरी दुनिया में, मेरे सपनों में,

मेरी ज़िन्दगी में

और कब ख़त्म होगी मेरी प्रतीक्षा...??


तुम्हारी ये प्रतीक्षा

वेदना के सिवाय क्या देती है??

वो दुःख अन्दर तक

घायल कर देता है

और अंतर्मन में बसी

तुम्हारी तस्वीर

जैसे हंसती है मुझ पर,

मेरी तन्हाई पर...


पर तुम्हे इससे क्या??

तुमने तो कसम खायी है

मुझसे न मिलने की,

मुझसे लुका-छिपी खेलने में ही

शायद तुम्हें आनंद मिलता हो...


पर क्या

इन आँखों से बहते आंसू

और साँसों की बढ़ी हुयी रफ़्तार भी

तुम्हें विचलित ना कर सकी??

कभी तो

मुझसे मिलने आते,

कभी तो

मेरे संदेशों का जवाब देते,

कभी तो

मेरी हालत पर तरस खाते,

और अहसान समझ के ही सही

मुझसे मिलने आ जाते...


तब शायद किसी दिन

मेरी पलकों को आराम मिल जाता,

मेरे सपनों को नया आयाम मिल जाता,

और तुम्हारी प्रतीक्षा में

मेरा जीवन सफल हो जाता...

Tuesday, March 29, 2011

चाहत...

बनके खुश्बू हवाओं में बिखर जाने की चाहत,
आवारा उड़ते हुए बहुत दूर तक पँहुच जाने की चाहत..

सागर की उन्मादी लहरों में सबकुछ लिखने की चाहत,
बूँद-बूँद में इक नज़्म को समा लेने की चाहत..

घण्टों एकटक सूरज को आँखें दिखाने की चाहत,
हाथ बढ़ा कर उस चमकते चाँद को पा लेने की चाहत..

बिना चिंगारी के गीली लकड़ियाँ सुलगाने की चाहत,
बिना सोए पलकों में हसीन ख़्वाब जगाने की चाहत..

बनके धड़कन हमेशा तेरे दिल में धड़कने की चाहत,
बनाके तुझे धड़कन अपने दिल में धड़काने की चाहत..

Wednesday, February 9, 2011

मेरे अतीत के साये...

दूर तक जाते हुए
अकेले विरान रास्तों में,
मेरे साथ-साथ कुछ
अलग से, अनजाने से साये
चलते हुए महसूस होते हैं हमेशा...
गौर से देखने पर,
यूँ लगता है कि जैसे
काफी जाने-पहचाने हैँ वो...
शायद,
मेरे अतीत के साये हैं वो...

रात में जब कमरे की
बत्ती बंद हो जाती है
और फैल जाता है
एक सुनसान अँधेरा चारों तरफ,
तब भी मेरे सिरहाने पर बैठकर
और प्यार से मेरी आँखों मेँ
मचल कर,
अपना वजूद याद दिलाते हैँ वो...
क्योंकि,
मेरे अतीत के साये हैं वो...

किसी बगिया मेँ
फिरते हुए भँवरे की तरह,
मेरी यादेँ और ख़्वाहिशें भी
भटकती रहती हैं,
किसी बहार के इंतज़ार में...
फिर किसी दिन,
जब मन में होती है
खुशियों की आहट,
तो सब झूमते हैं इतना
कि वर्तमान में आ जाते हैँ
मेरे अतीत के साये...

Saturday, January 29, 2011

तुम्हें करके शामिल...

मर के इक दिन मिट्टी में मिल जाना है मुझे,
उसी मिट्टी में बनके फूल, खिल जाना है मुझे...

चुपके से तुम्हारे सपने में आ जाना है मुझे,
उसी सपने में तुम्हें चुरा के, पा जाना है मुझे...

बारिश के बाद की उजली रात सा हो जाना है मुझे,
उसी रात में इक चमकता चाँद, हो जाना है मुझे...

जुदा हो कर भी तुम्हारी दुआ बन जाना है मुझे,
उसी दुआ में तुम्हारी याद, बन जाना है मुझे...

तुम्हारी चाहत में बनके आँसू बह जाना है मुझे,
उसी आँसू में जुदाई का गम भी, सह जाना है मुझे...

चंद लम्होँ की ज़िन्दगी में दो पल बिता ले जाना है मुझे,
उसी पल में सबको हसीन खुशियाँ, दे जाना है मुझे...

तेज़ आँधियों में भी अपना वजूद पहचान जाना है मुझे,
उसी वजूद मेँ तुम्हें करके शामिल, अपना मान जाना है मुझे...