Monday, October 25, 2010

वो मुलाकात...

ना जाने कैसी थी वो मुलाकात,
जब ना होंठ हिले,
और ना पलकें खुली...
शब्द कहीं खो गए थे,
और निगाहें कहीं गुम सी गयी थी...

उस एक पल में तेरा पास आना,
और धीरे से मेरे हाथों को थामना...
कैसी सिरहन सी दौड़ गयी थी,
और धड़कन भी थम सी गयी थी...

हर तरफ बस ख़ामोशी का साया था,
अनकही बातों को नज़रों ने सुनाया था...
बस तुम थे, मैं थी और तन्हाई थी,
सारी दुनिया हमारे दरमियाँ सिमट आई थी...

कैसी थी वो मुलाकात
जब हर बात ख़ास थी,
गुलाबों सी महकती हुयी शाम
और दूर तक नज़रों में तुम ही तुम,
अलग एहसास था उस पल का...

पर ये क्या हुआ अचानक!!
तुम दूर, बहुत दूर जा रहे थे...
मेरे हाथों से तुम्हारे हाथ फिसल रहे थे,
रोकना चाहा था तुम्हें बहुत
पर तुम रुक न सके...
शायद तुमसे मुलाकात का समय
ख़त्म हो चुका था मेरे लिए,
और तुम नज़रों से ओझल हो चुके थे...

गुलाबी महकती शाम
सर्द हो चुकी थी,
अब बस मैं थी और तन्हाई थी,
पर तुम कहीं ना थे...

अब भी ख़ामोशी थी,
पर कुछ कहने के लिए
तुम्हारी नज़रें नहीं थी...
होंठ अब भी सिले थे,
शब्द अब भी खोये थे,
पर तुम जा चुके थे मेरी दुनिया से,
कभी ना मिलने के लिए...

मुलाकात गुज़र चुकी थी,
वो ख़ास लम्हा अतीत बन चुका था,
और ज़िन्दगी बंद होंठों सी
खामोश हो चुकी थी...

Thursday, October 14, 2010

नज़र नहीं आया...

सबसे दूर कहीं छुप जाने के लिए,
एक ज़रिया भी दिखा नहीं,
और यादों से बच निकलने का,
कोई रास्ता नज़र नहीं आया...

भटकते रास्तों में साथ चलने को,
एक मुसाफ़िर मिला नहीं,
और मुझे पहचानने वाला दूर तक,
कोई शख्स नज़र नहीं आया...

पल भर रुक कर सुस्ताने के लिए,
कहीं छाया भी नसीब नहीं,
और एक अदद बाग़ तो क्या,
कोई शज़र नज़र नहीं आया...

आखिरी बार मिले उस मोड़ पर,
फिर मुड़कर देखा कभी नहीं,
और तेरी गलियों में जाने वाला,
कोई रास्ता नज़र नहीं आया...

कई ज़माने तक एक ही ख्वाब देखा,
जो हकीकत बना कभी नहीं,
और अब कई रातों से आँखों में,
कोई ख्वाब नज़र नहीं आया...

हर तरफ़ वो प्यादे ही चाल चलते रहे,
जो सामने दिखे कभी नहीं,
और ज़िन्दगी के खेल में लड़ने वाला,
कोई सिकंदर नज़र नहीं आया...

हादसों ने कर दिया मुश्किल जीना
फिर चैन भी मिला कभी नहीं,
और थोड़ी सी ख़ुशी बरसाने वाला,
कोई बादल नज़र नहीं आया...