Friday, September 9, 2011

उसकी कहानी...

वो सिसक रही थी,
घुट रही थी कहीं अपने ही भीतर...
शरीर पर पड़े थे निशान
कहीं चोट के, कहीं ज़ख्म के,
टांको ने सी तो दिए थे घाव
पर नहीं सी पाया
टूटे सपने, टूटे अरमानों को...

आज वो खड़ी थी चौराहे पर
जहाँ भीड़ में भी वो तनहा थी...
जिसने छोड़ दिया था उसे
ऐसी हालत पर,
वो कहने को उसका अपना था
पर कितना अपना था,
इसकी ख़बर किसी को ना थी...

आज आईने ने भी
इनकार कर दिया था उसे पहचानने से...
सुर्ख लाल जोड़े में लिपटी
सजी धजी थी वो,
जब आईने ने उसका स्वागत
मुस्कुरा के किया था
उस खुशनसीब दिन में...

पर, काले घेरों में
अंदर तक धंसी, बुझी हुयी सी
रोती आँखें, सूजे हुए होंठ,
ज़ख्मों से भरा चेहरा
जो मुरझा चुका था,
लाख कोशिशों के बाद भी आज
आइना ना पहचान सका...

वो चाहती थी कुछ कहना
पर उसकी आवाज़ को
ना मिला कोई सुनने वाला
और दबा दी गयी उसकी आवाज़...
जैसे धर्म के नाम पर बलि देते वक़्त
मिमिया के रह जाती है
एक मासूम सी बकरी...

वो पूछना चाहती थी सबसे
कि उसे सज़ा मिली तो क्यूँ ???
एक औरत होना क्या
एक औरत का सबसे बड़ा गुनाह है ???
पर उसे नहीं मिला कोई जवाब,
सबसे अकेले वो बस रोती रही...
फिर भी अनकही अनसुनी रह गयी
उसकी कहानी...

9 comments:

  1. हकीकत बयान करती यह रचना अच्छी लगी...शुभकामनायें !!

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  2. बहुत मार्मिक प्रस्तुति। बहुत सुंदर

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  3. nari jati ki marmik prastuti.......

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  4. औरत होना गुनाह नहीं
    हद से अधिक सहनशीलता
    खुद के साथ अन्याय है

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