Monday, May 24, 2010

तूफ़ान


हवाओं की सरसराहट बढ़ने लगी थी,
पंछियों की चिल्लाहट भी बढ़ने लगी थी।

लगता था कि जैसे कोई तूफ़ान आएगा,
बढ़ी
ज़ोरों से साथ में ज़लजला लायेगा


कैसे संभलेगा मेरा आशियाना इस तूफ़ान में?
क्या सब-कुछ बह जायेगा बारिश के उफ़ान में?


यही सब ख्याल दिल को डरा रहे थे,
मेरी हिम्मत का मुझको एहसास करा रहे थे।


अचानक से बिजली ज़ोरों से चमकी,
दूर आसमान में कहीं रोशनी दमकी।


तेज़ हवाओं के साथ पानी बरसने लगा,
अनजाने डर से मेरा दिल तड़पने लगा।


शायद तूफ़ान आ गया था...
बिन बुलाया मेहमान आ गया था...


कुछ देर तबाही मचाने के बाद,
मेरे आंसू बहाने के बाद,
सब-कुछ शांत हो चुका था,
क्योंकि तूफ़ान जा चुका था।


ये तूफ़ान तो सह लिया था,
तबाह होने से बचा लिया था,
पर उस तूफ़ान का क्या जो अब आने वाला था,
बाहर के बदले इस दिल पर बरसने वाला था।


आशियाना तो बचा लिया था इस बाहर के तूफ़ान से,
क्या खुद को बचा पाऊँगी अपने ही दिल के तूफ़ान से?


ये सवाल भले ही मुझको डरा रहा था,
पर सब ठीक हो जायेगा, ये विश्वास दिला रहा था...

Saturday, May 22, 2010

लौटता सूरज

शाम के सिंदूरी आँचल में,
दूर तक फैली सूरज की लालिमा
इशारे कर रही है...

चह-चहाते पक्षी लौट चले हैं
अपने-अपने नीड़ों की तरफ...

अपनों से मिलने की ख़ुशी ने
उनके पंखों में हिम्मत भर दी
और उड़ान में तेजी दे दी...

हर कोई लौट रहा है वहां को,
जहाँ से सुबह चला था,
जैसे सूरज लौट रहा है...
सुबह से दिन, दिन से शाम,
और फिर शाम से रात...

सूरज लौट जायेगा
और छोड़ जायेगा
काली अँधेरी रात...
इस वादे के साथ
कि नयी सुबह के साथ,
दिन फिर निकलेगा
नयी शुरुआत के साथ...

Thursday, May 13, 2010

सपने..


इन नन्ही आँखों में पलते,
कभी बिगड़ते, कभी संवरते,
ये सपने ही तो हैं...

वो सपने जो पल-पल सांस लेते हैं,
अपने वजूद का हर पल
एहसास कराते हैं।

कितना विस्तृत है इन सपनों का संसार,
आशियाना है इनका नज़रों के पार।

क्या हुआ अगर,
कभी कोई सपना अधूरा रह जाये!
ये क्या कम है,
कि वो सपना जीने की वजह दे जाये।

सपनों से ही तो ज़िन्दगी की रौनक है,
अँधेरी रात में भी आँखें रोशन हैं।

कांच के जैसे होते हैं सपने...

सहेज के रखो दिल में,
तो बरसों पलते हैं...
और जो न दो अहमियत,
तो पल में बिखरते हैं...

कभी हंसाते तो कभी रुलाते हैं,
ये सपने अक्सर दिल बहलाते हैं।
आधे-अधूरे हों तो सताते हैं,
जो पूरे हों तो ख़ुशी दिलाते हैं।

कौन समझ पाया है
सपनों का मायाजाल ??
इसका उत्तर कैसे मिले,
ये है कठिन सवाल ??

Wednesday, May 12, 2010

खुद को कैसा पाया मैंने ???


बस में भरी हुयी भीड़ के बीच,
अनदेखे अनजाने चेहरों के बीच,
खुद को तनहा पाया मैंने...

बाज़ार में बिकते सामानों के बीच,
हज़ारों अमीर खरीदारों के बीच,
खुद को बिकता पाया मैंने...

अपने बड़े से आशियाने के बीच,
अपने सगे संबंधों के बीच,
खुद को घुटता पाया मैंने...

कैसे हंसू, कैसे रोऊँ,
कैसे त्यौहार मनाऊं...
किसे अपना कहूँ, किसपर विश्वास करूँ,
किस से सहारा मैं पाऊं...

पल-पल हरदम इस जीवन में,
खुद को मरता पाया मैंने,
बेड़ियों में दम तोड़ते-तोड़ते,
खुद को "औरत" पाया मैंने...