मैं, मैं हूँ
तुम, तुम हो...
मैं कभी "तुम" नहीं हो सकती,
तुम कभी "मैं" नहीं हो सकते.
मेरे और तुम्हारे बीच
सिर्फ़ एक शरीर की संरचना का फ़र्क नहीं,
बल्कि फ़र्क
सोच का, संवेदनाओं का,
सपनों का, भावनाओं का,
हृदय और मस्तिष्क से
काम करने की प्रवृत्ति का...
ये कुछ फ़र्क
तुम्हें "तुम" बनाते हैं
और मुझे "मैं"...
तुम जहाँ कुछ खोना नहीं जानते,
वहीं मैं कुछ पाना नहीं जानती.
क्योंकि तुम कभी कुछ खोते नहीं,
और मैं हर बार कुछ पाती नहीं...
NICE....
ReplyDeleteबहुत खूब!
ReplyDeleteसादर
मैं औत तुम का फर्क तो नैसर्गिक है
ReplyDeleteसुन्दर भाव
Kuchh fark naisargik h aur kuchh maansikta ka bhi.. shayad isiliye prem ki umar lambi tabhi hoti hai jab main aur tum HUM ban jayein...
ReplyDeleteसही कहा "मैं" "तुम" नहीं हो सकते और "तुम" "मैं" नहीं हो सकती...सबका अपना अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व होना चाहिए...बहुत अच्छी रचना...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
मिताली
ReplyDeleteअच्छी रचना है, हम मात्र अपने बारे में ही सोचते हैं
मेरा इक शेर है --
मिलता कभी वो कैसे के पूजा के वक्त भी
हमको तो अपनी फ़िक्र थी अपना ही ध्यान था
आज़र
सही है सहज ही हर कोई बदल नहीं सकता अपने आप को किसी और से ... भाव मय कविता ...
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