कई दिनोँ बाद
खोला था वो पुराना संदूक।
कुछ कपड़े,
कान के झुमकोँ की पोटली
और एक डायरी,
किसी कैदी की तरह
चुपचाप बैठे दिखे।
ये सब भी मेरी तरह ही,
उस ख्वाब की निशानियाँ थी
जो आँखोँ मेँ सजा तो सही
पर हकीकत ना बन पाया।
जो कुछ भी था वो,
पर एक ख्वाब से परे तो ना था...
कोई विशेषण भी नहीँ था,
जो इस ख्वाब के मायने बढ़ाता।
हर महिने की
एक तयशुदा तारीख को खुलने वाला वो संदूक,
वो कपड़े, वो झुमके,
वो फटती हुई ज़िल्द वाली डायरी,
सब पुराने हो चले थे,
पर उनमेँ आज भी
उस अधूरे रिश्ते के ख्वाब की झलक दिखती है।
आज सोचती हूँ,
रिश्ते जब चाह कर भी जुड़ नहीँ पाते,
तो अधूरे रह जाते हैँ...
ठीक उसी तरह,
जैसे कोई तस्वीर के
पूरी होने से पहले ही
रंग खत्म हो जाए...
और तब,
अधूरे रिश्ते भी अधूरी तस्वीर से नज़र आते हैँ।
रिश्ते होँ या तस्वीरेँ,
प्यार से ही सँजोये जाते हैँ,
बिलकुल
एक मीठे ख्वाब की तरह...
पर अगर ऐसा
कभी संभव ना हो तो,
रिश्ते होँ या तस्वीरेँ,
अधूरे रहने पर
अधूरा ख्वाब बन जाते हैँ...
और जीवन मेँ
अधूरापन छोड़ जाते हैँ...
जय हो
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteअच्छा लगा ।
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