Saturday, August 21, 2010

क्योँ इश्क मेँ ???

क्योँ ज़माने भर मेँ
ये चर्चा आम हो गया,
इश्क करने वाला हर
शख़्स बदनाम हो गया...

जहाँ चँदा-चकोरोँ की
मिसालेँ दी जाती थी कभी,
देखो खराब आज वहीँ
कबूतरोँ का नाम हो गया...

कोई बँदिश सिर इश्क का
जहाँ झुका ना सकी कभी,
इज़्जत के नाम पर वहीँ
आज कत्लेआम हो गया...

पीना पड़ा था मीरा को भी
विष का प्याला कभी,
लेकिन आज हर घर मेँ
ये किस्सा आम हो गया...

मौत को गले लगाना
मजबूरी होती थी कभी,
पर इश्क करने वालोँ का
आज यही अंजाम हो गया...

Saturday, August 7, 2010

जीवन-रेखा...

तय नहीं है कुछ
जीवन की रूप-रेखा,
कैसे लिखा गया है
मेरी जीवन का लेखा...

नहीं पता कि कहाँ छूटा
वो बचपन का बसेरा,
और ना है अंदाज़ा कि
कहाँ होगा कल को डेरा...

दिल हो जाता है उदास
ना चाहते हुए भी यूँ ही,
अकेलेपन से हो गया प्यार
महफ़िलों में भी यूँ ही...

लगता है कि कुछ नहीं है
इस जीवन में बचा हुआ,
चक्रव्यूह सा लगता है
ये सारा जीवन रचा हुआ...

एक पल को लगता है आगे बढ़ कर
मैं खुशियों को मुट्ठी में कर लूँ,
फिर महसूस करूँ इनकी खुशबू को
और हँसते-हँसते सीने में भर लूँ...

पर क्या हो जब जीने का
उद्देश्य ही धुंधला पड़ जाये,
कोई राह नज़र ना आ पाए
और कदम ना आगे बढ़ पाए...

अनदेखी अनसुलझी जीवन-रेखा
बन कर आई एक पहेली,
इस व्यूह को भेदने की कोशिश में
मेरी कोई नहीं सहेली...

Thursday, August 5, 2010

कश्मकश...

अजीब सी कश्मकश,
शुरू कर रही है
मेरे वज़ूद को घेरना,
धीरे-धीरे
बिना आहट के,
दीवारों पर लगे
किसी अनचाहे दीमक की तरह...

बहुत मुश्किल होता है,
कल्पना और हक़ीकत
में से किसी एक को चुनने
का निर्णय लेना...
मन को घेरती हुयी
कश्मकश,
ऐसा करने नहीं देती...

कभी हक़ीकत की दुश्वारियां
रुला देती हैं इतना,
कि वास्तविकता को अपनाने से
डरता है इंसान...
और कभी ऐसा भी
देखने में आता है,
जब कल्पनाओं की सजीवता
और स्मृतियाँ
बांधे रखती हैं इंसान को
अपनी दुनिया से...

हर तरफ बस
एक भ्रम नज़र आता है...
वक़्त कभी हक़ीकत को
झुठला देता है,
तो कभी कल्पनाओं कि दुनिया
उजाड़ देता है...
ऐसे हालातों में
जब कश्मकश पैदा होती है,
तो इन हालातों के पास भी
कोई हल नहीं होता,
मन को घेरती हुयी
कश्मकश का...
फिर चाहे
वो मेरा मन हो
या किसी और का,
कश्मकश तो घेरती जाती है
सबके वज़ूद को,
किसी अनचाहे दीमक कि तरह...

कश्मकश की ये कहानी
चलती रहती है हमेशा,
और ना चाहते हुए भी,
पूरी ज़िन्दगी
यूँ ही काटनी पड़ती है,
अपनी कश्मकश से
थोड़ा-थोड़ा
रोज़ लड़ते हुए...

Tuesday, August 3, 2010

ना जाने क्यों...??

इश्क तो किया था हमने ज़माने सा जुदा,
ना जाने क्यों अंजाम सारे ज़माने सा निकला...

वफ़ा तो थी दोनों की मोहब्बत में मगर,
ना जाने क्यों ये वक़्त ही बेवफ़ा निकला...

सोचा था मंज़िलों पर महफ़िलें सज़ा करेंगी,
ना जाने क्यों हर रास्ता ही तनहा निकला...

इक मुद्दत सी हो गयी वो शहर छोड़े हुए,
ना जाने क्यों वहाँ कोई अपना ना निकला...

दिल ने कई अरमान, कई सपने सजाए थे,
ना जाने क्यों मेरे अरमानों का जनाज़ा निकला...

एक दर्द सा उठा आज फिर सीने में कहीं,
ना जाने क्यों आज भी हर ज़ख्म ताज़ा निकला...

कहना तो चाहा था बहुत कुछ तुझसे, मगर
ना जाने क्यों हर अल्फाज़ अधूरा निकला...

माँगा तो बहुत था तुझे दुआओं में हमेशा,
ना जाने क्यों मेरी किस्मत में तू ही ना निकला...