बैठी थी सागर के किनारे गीली रेत पर,
देख रही थी सूरज को डूबते हुए हर पल।
कुछ भी तो ना था हुआ बुरा जो शोक मनाती,
ना हुआ कभी मन का जैसा जो उल्लास मनाती।
जीवन का सफर बस यूँ ही कटता रहा,
बहती लहरोँ की तरह वक्त फिसलता रहा।
सोचा, क्योँ ना आज ज़रा पीछे मुड़ कर देखूँ,
क्या खोया क्या पाया इस बारे मेँ कुछ सोचूँ।
पर खोया हुआ वापस तो मुझे नहीँ मिल पाएगा,
और क्या पाना है मुझको, ये कौन मुझे बताएगा।
पुरानी यादोँ मेँ ही जीवन सँवरता रहा,
धीरे-धीरे मुट्ठी से वक्त फिसलता रहा।
चाहा तो था हमेशा हर पल एक सा रहना,
पर वक्त ने माना नहीँ कभी मन का कहना।
वक्त की दासता रही हमेशा मन पर हावी,
वक्त ने फेँकी मन के अरमानोँ पर स्याही।
वक्त को रोकने के लिए मन ज़ोर लगाता रहा,
पर मन थक गया और वक्त फिसलता रहा।
वक्त को रोकने के लिए मन ज़ोर लगाता रहा,
ReplyDeleteपर मन थक गया और वक्त फिसलता रहा। सुंदर अभिव्यक्ति ,शुभकामनायें
बेहद खूबसूरत प्रस्तुति।
ReplyDeleteवक्त बहुत बलवान है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता.
जीवन का सफर बस यूँ ही कटता रहा,
ReplyDeleteबहती लहरोँ की तरह वक्त फिसलता रहा।
वक्त कब इंतजार करता है
सुन्दर रचना
आप की रचना 16 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
वक्त तो रेत है फिसल ही जायेगा ..अच्छी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसमय तो किसी की प्रतीक्षा नही करता ... न ही भविष्य का पता चल पाता है ...
ReplyDeleteइसलिए समय के साथ साथ चलना ही अच्छा है .... वरना रेत की तरह वक़्त फिसल जाएगा ... अच्छे भाव हैं आपकी रचना में ....
. अच्छे भाव हैं आपकी रचना में ....
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद...
ReplyDeleteतट पर बैठे रहकर थक गया हूं, अब चाहता हूं कि कोई लहर आए और मुझे साथ ले जाए...
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