Sunday, July 24, 2011

तुम्हारी अभिलाषा...

तुम्हारे सिवा बाकि नहीं रही
मेरी कोई और अभिलाषा...

मेरे सपनों की कल्पना भी जैसे
दूर तक भटकने के बाद,
तुम पर ही आकर ठहर सी गयी है...
शायद तुम्हारा स्पर्श ही
मेरे सपनों को यथार्थ बनाता है...

मेरे जीवन-संगीत का सुर भी
तुम्हें सोच कर, तुम्हें चाह कर
छेड़ देता है एक मधुर तान...
शायद तुम्हारा ख्याल ही मेरे
सुरों को संगीत देता है
और मेरे जीवन को झंकृत करता है...

सावन में बरसता रिमझिम पानी,
जैसे पल भर में मिटा देता है
बरसों से अतृप्त धरती की प्यास को,
तुमने भी कुछ वैसे ही
भिगो दिया है मेरा सूखा आँचल...
शायद मेरे मन की अतृप्त प्यास को
तुम्हारे सिवा कोई समझ नहीं सकता...

हर एक क्षण में तुम्हारा व्यक्तित्व
मुझे अचंभित करता है...
न जाने क्यूँ एक अलग सा खिंचाव,
एक अलग सा सम्मोहन है तुम में...
जबकि तुम्हारी आँखों में
कोई रहस्य नज़र नहीं आता...
वहां बस एक मासूम सी, शोखी ली हुयी
चंचलता नज़र आती है...
शायद तुम्हारी यही चंचलता
जीवन में नयी चमक देती है
और मेरे भीतर के बचपन को
कभी मरने नहीं देती...

हाँ मुझे है तुम्हारी अभिलाषा,
क्योंकि तुम्हारा साथ कभी भी
मुझे भटकने नहीं देता...
तुम्हारा कोमल सा, नरम सा स्पर्श
मुझे कोई तकलीफ नहीं देता...
तुम्हारा मेरे जीवन में होना
मुझे कभी शुन्य नहीं होने देता...
शायद ये तुम्हारी अभिलाषा ही है,
जो मेरे जीवन को संपूर्ण बनाती है...