Thursday, August 11, 2011

क्षणिकाएं...

पतझड़ का मौसम

महकते जीवन में,
बरसों से तेरी चाहत ने
तेरी  यादों ने,
खिलाये कई फूल गुलमोहर के...
आज तू नहीं,
तेरी चाह नहीं,
तेरी याद नहीं,
तेरे ख़्वाब नहीं...
ज़िंदगी भी बस यूँ ही
धीरे-धीरे कट रही है ऐसे,
जिसे देख कर
कोई भी कह दे कि
बिखर गए हैं
फूल गुलमोहर के
और आ गया है
मेरे जीवन में
पतझड़ का मौसम...



अधूरी तस्वीर

बस कहीं से
एक और रंग मिल जाये,
तो बरसों से
अधूरी रही ये तस्वीर
पूर्णता का आयाम पा लेगी...
शायद
जो हल्का पड़ा रंग था,
वो भी कुछ गहरा जाये
बदले हुए रंग से...
आ जाये कुछ निखार
बेरंग सी तस्वीर में,
हो जाये वो तस्वीर पूरी
और फिर,
शब्द फूट पड़ें
उस मौन पड़ी
अधूरी तस्वीर में...

4 comments:

  1. क्यों सावन के मौसम मे
    पतझड़ की बाते करती हो...
    गुलमोहर के फूल क्यों बिखरे,
    यह सोंचा तुमने एक बार कभी.


    गुलमोहर का गुल होना
    ही है सबसे स्वभाव परे...
    ख्वाबों से चल निकल सखी
    रच डालो एक संसार नया...

    विरह नहीं एकाकी सत्य,
    सत्य बहुमुखी, बहुरूपी है...
    सिमट के जीना भी क्या जीना
    खुल के जी लो फिर एक बार सखी...

    क्षणिक नहीं समूर्ण जियो
    फिर से जी लो एक बार सखी...

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  2. बहुत सुन्दर सारगर्भित,
    रक्षाबंधन एवं स्वाधीनता दिवस पर्वों की हार्दिक शुभकामनाएं तथा बधाई

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  3. दोनों बहुत खूबसूरत लिखा है आपने मिताली!!

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  4. सुन्दर प्रस्तुति ...

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