Monday, July 19, 2010

मेरा गाँव...

शहर के पक्के मकान की छत से
सामने दिखने वाली,
उस ऊँची पहाड़ी की तलहटी पर
धीरे-धीरे सूखती हुई
एक नदी है,
जिसके किनारे बसा है
एक छोटा सा गाँव...

कुछ साल पहले तक,
उधर चीड़ और देवदार के
घने जंगल हुआ करते थे,
वँहा की साफ पानी वाली नदी
सूखी नहीँ थी,
मिट्टी के मकानोँ मेँ भी
रिश्ते पनपते थे,
लहलहाते खेतोँ मेँ पूरे साल
फसलेँ खिलती थी...
सब लोगोँ मेँ प्यार भरा था,
सब मन के सच्चे थे,
दादी से कहानी सुनने वाले
सब बच्चे अच्छे थे,
ये मेरा गाँव था...

दिन बीते, महीने बीते,
कई साल बीत गये...
पेड़ कटते गये,
नदी सूखती गयी,
ना अब वो घने जँगल रहे,
ना मीठे पानी की नदी...
मिट्टी के मकान भी
पत्थर-सीमेन्ट के हो गये,
और अब खेतोँ मेँ भी
फसलेँ कम खिलती हैँ...
लोगोँ ने भी अपने तक रहना
शुरू कर दिया,
और दादी की कहानियाँ भी
बच्चोँ की राह मेँ सो गयी...

लेकिन,
ये अब भी
मेरा गाँव था...
वो गाँव,
जो पक्की सड़कोँ से
शहर तक जुड़ रहा था,
जँहा के लोग नौकरी के लिए
शहर मेँ बस चुके थे...

शायद,
धीरे-धीरे
मेरा गाँव बदल रहा था...

11 comments:

  1. बहुत ही सुंदर और सार्थक कविता....

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  2. अच्छा शब्द चित्रण किया है.

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  3. मैं तो वैसे ही अपने बचपन को मिस करता हूँ, ऊपर से आपने और याद बढ़ा दी.
    आपकी रचना ने मेरी तड़प को बढ़ा दिया हैं.
    बहुत बढ़िया.

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  4. आपने फिर से बचपन में लौटने को मजबूर किया. उम्दा रचना जारी रहें.

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  5. आपकी रचना सोचने को मजबूर करती है...बेहतरीन रचना है आपकी...बधाई...

    नीरज

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  6. sundar kavita hai mitali. isi tarah likhati raho. mitti se jud kar likhane valaa hi safal hota hai. shubhkamanayen.

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  7. अपना गांव इन प्रभावों से कुछ बचा हुआ है अभी...

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  8. waah.. mere gaav ki yaad dila di tumhari is kaveeta ne.

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  9. गाँव तो अब बस् यादोँ मे सिमट के रह गए ।

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