Wednesday, July 14, 2010

वक्त फिसलता रहा...

बैठी थी सागर के किनारे गीली रेत पर,
देख रही थी सूरज को डूबते हुए हर पल।
कुछ भी तो ना था हुआ बुरा जो शोक मनाती,
ना हुआ कभी मन का जैसा जो उल्लास मनाती।
जीवन का सफर बस यूँ ही कटता रहा,
बहती लहरोँ की तरह वक्त फिसलता रहा।

सोचा, क्योँ ना आज ज़रा पीछे मुड़ कर देखूँ,
क्या खोया क्या पाया इस बारे मेँ कुछ सोचूँ।
पर खोया हुआ वापस तो मुझे नहीँ मिल पाएगा,
और क्या पाना है मुझको, ये कौन मुझे बताएगा।
पुरानी यादोँ मेँ ही जीवन सँवरता रहा,
धीरे-धीरे मुट्ठी से वक्त फिसलता रहा।

चाहा तो था हमेशा हर पल एक सा रहना,
पर वक्त ने माना नहीँ कभी मन का कहना।
वक्त की दासता रही हमेशा मन पर हावी,
वक्त ने फेँकी मन के अरमानोँ पर स्याही।
वक्त को रोकने के लिए मन ज़ोर लगाता रहा,
पर मन थक गया और वक्त फिसलता रहा।

10 comments:

  1. वक्त को रोकने के लिए मन ज़ोर लगाता रहा,
    पर मन थक गया और वक्त फिसलता रहा। सुंदर अभिव्यक्ति ,शुभकामनायें

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  2. बेहद खूबसूरत प्रस्तुति।

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  3. वक्त बहुत बलवान है.

    बहुत सुंदर कविता.

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  4. जीवन का सफर बस यूँ ही कटता रहा,
    बहती लहरोँ की तरह वक्त फिसलता रहा।
    वक्त कब इंतजार करता है
    सुन्दर रचना

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  5. आप की रचना 16 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
    http://charchamanch.blogspot.com
    आभार
    अनामिका

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  6. वक्त तो रेत है फिसल ही जायेगा ..अच्छी अभिव्यक्ति

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  7. समय तो किसी की प्रतीक्षा नही करता ... न ही भविष्य का पता चल पाता है ...
    इसलिए समय के साथ साथ चलना ही अच्छा है .... वरना रेत की तरह वक़्त फिसल जाएगा ... अच्छे भाव हैं आपकी रचना में ....

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  8. . अच्छे भाव हैं आपकी रचना में ....

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  9. हार्दिक धन्यवाद...

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  10. तट पर बैठे रहकर थक गया हूं, अब चाहता हूं कि कोई लहर आए और मुझे साथ ले जाए...

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