Thursday, July 1, 2010

मुझको नहीँ पता...

मैँ कुछ सोच रही थी पर क्या, मुझको नहीँ पता.
इस बेहोशी से कौन जगायेगा मुझको नहीँ पता.

मेरी खामोशियाँ कौन तोङेगा मुझको नहीँ पता.
नये शब्द कौन पिरोयेगा मुझको नहीँ पता.

मेरी हँसी कहाँ खो गई मुझको नहीँ पता.
मेरी मुस्कान कौन बनेगा मुझको नहीँ पता.

कब तक बहेँगे ये आँसू मुझको नहीँ पता.
इन्हे आकर कौन पोछेगा मुझको नहीँ पता.

हमेशा ज़ख्म ही क्योँ मिले मुझको नहीँ पता.
इनमेँ मरहम कौन लगायेगा मुझको नहीँ पता.

तन्हा कटेगा कैसे ये सफ़र मुझको नहीँ पता.
मेरा हमसफ़र कौन बनेगा मुझको नहीँ पता.

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कहते हैँ कि हर रचना के पीछे कोई ना कोई प्रेरणा होती है, पर मेरी इन पंक्तियोँ के पीछे एक दुर्घटना का हाथ है.
मेरी बचपन की एक सहेली जो अपनी शादी के मात्र 5 महिनोँ बाद ही विधवा हो गई, उसे और उसके हालातोँ को देखकर अनायास ही मेरे मन मेँ ये ख्याल आ गये. इतनी कम उम्र मेँ विधवा हो जाना और उसके बाद अकेले ही सारी "अनुकूल-प्रतिकूल" परिस्थितियोँ का सामना करना वाकई मेँ अत्यन्त कष्टकारी है...

3 comments:

  1. हालात और हालत दोनों व्यक्ति को प्रभावित करते हैं. जीवन में बहुत कुछ अनियत है. इस अनियत को खूबसूरती से रचना के रूप में आपने बयान किया है
    सुन्दर रचना

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  2. अच्छा लिखा है. निश्चित ही भाव किसी न किसी प्रभाव की ही परिणिती होते हैं.

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