Thursday, February 6, 2014

बाँध...

आख़िर हो ही गयी
हमारे रिश्ते की इंतहा
और थोड़ी सी जुटा के हिम्मत
तुम्हारे मन ने भी कह दिया
"अब मुझे जाने दो..."
मैंने चाहा था ये
कि तुम्हें रोक सकूँ
ताकि रुक जाये
एक ऐसी वजह जीने के लिए,
जो ज़रूरी थी
मेरी साँसों के लिए भी...
लेकिन,
मुझसे रोका ना जा सका तुम्हें,
ना ही जता पायी
मैं तुम पर अपना हक़
और खड़ी हो गयी चुपचाप
मुँह फेर के तुमसे...
शायद,
कहीं मन के किसी कोने में
दबा हुआ सा डर
रहा हरदम हावी
कि कहीं मेरे आँखों की नमी
तुम्हें भी बहा न ले जाये...

तुम चले गये
बिना कोई आहट किये
मेरी दुनिया से कहीं दूर
और मैं खड़ी रही
उसी तरह उसी मोड़ पर,
तुम्हारी यादों का
उफ़नता हुआ सैलाब लिए...
आख़िर बनना था मुझे
ख़ुद एक बाँध
ख़ुद की भावनाओं के लिए,
ताकि बचा सकूँ मैं तुम्हें
अपनी भावनाओं के सैलाब में
डूब के बर्बाद हो जाने से...
और फिर इस तरह
सैलाब को रोकने के लिए
मेरे ख़ुद के बने बाँध ने
मुझे जाने-अनजाने बना डाला
एक ठहरी हुयी नदी...

Thursday, January 23, 2014

समीकरण...

एक नन्हा सा पल था
बिलकुल नन्हा सा
इतना कि जिसमें वो
बारिश की पहली बूंद
तय कर लेती थी अपना सफर
आसमान से ज़मीन के बीच का
और पाते ही मिट्टी का स्पर्श
बिखर जाती थी
सौंधी सी महक के रुप में
यूं ही चारों तरफ...

एक ऐसा भी पल था
जो उन्मुक्त होकर
अक्सर लेता था टक्कर
समय की सीमाओं से
समुन्दर के आगोश में उठती
उन चंचल लहरों की तरह
जो इतनी जिद्दी थी
कि उन्हें खुद समुन्दर भी
रख ना पाया
अपने काबू में कभी...

सोच ले जाती है अक्सर
जीवन के उन पुराने पन्नों की ओर
जहाँ मेरा होना या ना होना
तय होता था
तुम्हारे होने या ना होने से...
लेकिन यथार्थ,
यथार्थ तो डरावना है बहुत
उस धुंधले से सपने की तरह
जहाँ मेरे नन्हे से पलों में
तुम्हें पाने की ख़्वाहिश
लेती रहती हैं सांसे
जबकि तुम्हारे उन्मुक्त पल
वार करते हैं अक्सर
मेरे उन्ही नन्हे से पलों की
जीवंतता पर...

जैसे मिट्टी की सौंधी सी महक
कभी मन से भुलायी नहीं जाती
और समुन्दर की चंचल लहरें
कभी संभली हुयी पायी नहीं जाती
उसी समीकरण के अनुरूप
ना तुम मुझे भुला सकते हो
ना मैं तुम्हें पा सकती हूँ...
कौन जाने,
क्या पता इसी को कहते हैं
पलों के बीच का
असंतुलित समीकरण...

Saturday, September 7, 2013

झूठ

एक रोज़ हुआ था कुछ ऐसा 
कि हाथ खाली थे मेरे,
ना  संभावनाएं थी,
ना संवेदनाएं थी,
और ना ही था 
परिस्थितियों के हिसाब से 
अधबुनी उम्मीदों का ताना-बाना… 
उस  रोज़,
पहली बार निकला था 
मेरे मुंह से 
सच्चाई की मानिंद 
सबके दिलों में उतरता,
सबको खुश रखता,
एक सफ़ेद झूठ… 
कभी सुना था 
ना जाने किस के मुंह से,
कि एक झूठ
जो दे जाये किसी को
तमाम खुशियाँ,
तकलीफ देने वाले सच से
कहीं बेहतर है,
पर इस कथ्य के बाद 
बेहतर तो कहीं कुछ भी ना हुआ…

लोग मौका देखकर 
बदल देते हैं अपने रूप,
जीते हैं एक मायाजाल में फंसी 
दबी-घुटी सी ज़िन्दगी,
रखते हैं सबके साथ-साथ 
खुद को ही धोखे में 
और जी खोलकर बोलते हैं झूठ 
अपनी बदतर परिस्थितियों में 
खुद को खड़े रखने के लिए… 
उस "बेचारे" झूठ को तो 
ये भी नहीं मालूम होता 
कि  किस इंसान की 
किस परिस्थिति में 
किस कदर उसे 
बनना मिटना पड़ता है,
अगर झूठ चल गया तो 
"क्या बात है, भई"
और जो चल ना सके तो 
"झूठ के पाँव नहीं होते,
आखिर कब तक भागता"… 

उस रोज़,
जब बोला था मैंने झूठ,
खुद को परिस्थितियों 
और परेशानियों के तराजू में तोलकर,
तो आँख बंद करके 
कर लिया था यकीन 
तुमने, उसने, सबने 
और दे डाली थी 
मेरे झूठ को 
एक मूक स्वीकृति 
और मुझे एक मौन शाबासी… 
तब समझ आया था मुझे 
कि एक झूठे को अपनाने की हिम्मत 
दूसरा झूठा ही कर सकता है,
इसलिए तो झूठा होकर 
एक झूठे को अपनाना 
इस दुनिया का 
सबसे आसान काम है,
लेकिन ये भी 
हर किसी के बस की बात नहीं… 

Wednesday, May 8, 2013

यादों की पोटली ...

चुन-चुन कर मैंने 
समेट लिया 
तुम्हारी यादों का कारवाँ 
और बना ली एक पोटली ...
दिल की ना सुन कर 
लगाया जोर दिमाग पर 
कि कहीं कोई याद 
बाकी तो ना रह गयी ...
दिमाग ने भी चुपचाप 
लगा दी मुहर 
और मार दिया ताना 
मुझ पर हँसते हुए 
कि 'सब समेटने के बाद 
कुछ भी बिखरा नहीं रहता- 
ओ पागल लड़की' ...

अब बस मैं थी, तन्हाई थी,
और थी मेरी नज़रों के सामने 
तुम्हारी यादों की पोटली,
तुम्हारे दिए हुए
लाल जोड़े के साथ रखी हुयी ...
कभी मैं देखती 
तुम्हारी तस्वीर को,
कभी मैं सोचती 
खुद की तकदीर को,
कभी महसूस करती 
यादों की पोटली से झांकती हुयी 
तुम्हारी याद को ...

तभी अचानक से लगा 
कि हंस रही है तुम्हारी तस्वीर 
मेरे चेहरे पर
कई भाव देखकर,
पूछ रहा है वो सुर्ख लाल जोड़ा 
कि क्यों बाहर निकाला मुझे 
खुद से दूर करने के लिए,
चिढ़ा रही है मुझे 
वो यादों की पोटली
कि रह सकती है हमसे दूर होकर 
तो शौक से समेट ले हमें 
और निकाल बाहर कर 
दिल और दिमाग की गहराई से ...

ऐसा लगा 
कि जैसे इन सब के बीच 
कहीं दूर भटक गयी थी मैं 
यादों और हक़ीकत के बीच,
आखिर ये चुनाव मेरा ही तो था 
कि किसके साथ करनी है बसर
मुझे अपनी बची हुयी ज़िन्दगी ...
इस बार मैंने दिमाग की ना सुनकर 
लगाया दिल पे जोर 
और सुनी एक दबी हुयी 
मगर प्यारी सी आवाज़-
"तुम्हारी यादों से खूबसूरत 
तो कुछ भी हो नहीं सकता ..."
बस यही सोच कर 
हो गया था फैसला 
और चुन लिया था मैंने 
तुम्हारी यादों और ज़िन्दगी की हक़ीकत  में से 
तुम्हारी यादों को ...

आधी रात बीत गयी थी 
तुम्हारी यादों की पोटली समेटने में,
आधी बीत रही है 
तुम्हारी यादों को फिर से 
अपने आसपास बिखेरने में,
और इस समेटने-बिखेरने के बीच 
मैं भी बनती जा रही हूँ 
तुम्हारी यादों की पोटली की 
एक 'मासूम' सी याद ...

Thursday, May 2, 2013

अजनबी...

अजनबी होना
दूसरों के लिए, 
शायद
बचा लेता है हमें
गुनाहगार साबित होने से,
लेकिन
होना अजनबी खुद ही से
खड़ा कर देता है
कई सारे ऐसे सवाल,
जिनके जवाब चाहके भी
कभी नहीं मिल पाते...
आख़िर,
हम उस वजूद से
पूछ नहीं पाते कभी
कि बता तेरी रज़ा क्या है
क्यों तू हमारा होकर भी
हम ही से रह जाता है अजनबी...

अक्सर,
धोखा दे देता है हमें
शीशे का एक टुकड़ा भी
क्योंकि छिपा देता है वो
हमारे मन की सच्चाई को
चेहरे के परदे से…
किसी अजनबी से लड़ना
इस ज़माने में
कोई बड़ी बात नहीं,
बड़ी बात तो है
खुद ही से लड़ते रहना
तमाम-उम्र,
खुद की ही पहचान के लिये…

Wednesday, May 1, 2013

एक प्याली चाय...

सुबह-सुबह की पहली किरण
सीधे खिड़की से छन के
मेरे चेहरे पर
रौशनी और गर्मी की
प्यारी सी थपकी देती रही
और मुझे लगा
जैसे तुम्हारे नर्म हाथ
मेरे बालों से खेलते हुए
मेरे गालों तक आ पहुंचे हो…
तुम्हें देखने के ख़याल से,
तुम्हारी छुअन के एहसास से
अनायास ही,
मुस्कुरा उठे थे मेरे लब
और याद आया मुझे
वो एक लम्हा
जब धीरे से मेरे कान में
ये कह कर
"तुम नींद में मुस्कुराती हुयी
बड़ी प्यारी लगती हो",
तुम करते थे
मेरे दिन की शुरुआत...
बिस्तर के किनारे रखी पुरानी मेज
और उस पर सजी
एक प्याली चाय
अब भी करती है इंतज़ार तुम्हारा,
कि उसे भी आदत है
पहले तुम्हारे होठों से लगने की,
फिर तुम्हारे हाथों से
मेरे होठों तक पंहुचने की…
आज भी जब
मैं जी रही हूँ बस
तुम्हारी हसीन यादों के सहारे,
सुबह-सुबह की ये
एक प्याली चाय
बन गयी है मेरी हमराज़,
करती है हर सुबह
तुम्हारी ही तरह
मेरे उठने का इंतज़ार 
और करती है मुझे
तुम्हारी ही तरह
"मासूम" सा प्यार...

Thursday, April 25, 2013

मेरे अरमानों की चादर

बेख़बर थे तुम कुछ ऐसे
मेरी नज़रों के सामने
गहरी नींद में सोये हुए,
कि तुम्हें आज तक भी 
चल ना पाया 
इस बात का पता 
कि अपनी पसंद की 
रेशमी सफ़ेद चादर में,
कई सिलवटों के साथ 
तुम्हें मासूमियत से सोता देख 
उड़ जाती है कहीं दूर 
मेरी आँखों से नींद...

ना जाने कितनी रातें 
बीत गयी हैं यूँ ही 
तुम्हें एकटक देखते-देखते 
और उस मीठे से सपने को 
अपने मन में सोचते-सोचते,
जो तुम्हारी नींद की गहराई से भी 
तुम्हारे चेहरे पर ल देता है 
कई रंगों की मुस्कान...

हर रात सजाती हूँ मैं 
अनगिनत अरमानों के सपने,
सिलती हूँ उन्हें फिर 
विश्वास के धागे से 
और बड़ी मेहनत से 
बना कर एक प्यारी सी चादर,
ओढ़ा देती हूँ तुम्हें, 
ताकि तुम्हारी उस 
रेशमी सफ़ेद चादर की सिलवटें 
कर ना सकें मुकाबला 
मेरे अरमानों की चादर से...

Sunday, April 21, 2013

दरिया...

एक दरिया था 
महकते जज़्बातों  का,
जो तब-तब उमड़ता था 
जब-जब तेरा ज़िक्र 
मेरे कानों से गुज़रता हुआ 
सीधे जा पंहुचता था 
मेरे दिल की गहराई में ...

इस जज़्बाती दरिया ने 
कभी तुझे निराश किया हो 
ये मुमकिन नहीं,
आखिर तेरे लिए ही
इस दरिया का महकना 
बन गया था 
इस दरिया की नियति ...

आज तू नहीं,
तुझसे जुड़ी कोई याद नहीं,
कोई महकते जज़्बात नहीं 
और ना ही है 
वो उमड़ता हुआ सैलाब 
इस दरिया में ...

सूख चूका है 
ये जज़्बाती दरिया 
तेरी प्यास बुझाते बुझाते,
रह गए हैं बस
पत्थर और मटमैली धूल   
कि तू अब लौट के आने की 
ज़हमत मत उठाना ...

तुझे अपनाने के लिए 
बहाना होगा मुझे 
नये जज्बातों को 
जो मुमकिन नहीं मेरे लिए, 
क्योंकि अब फिर से 
उस सैलाब को बहाने के लिए 
खोदना होगा तुझे 
मेरे दिल की ज़मीन को 
जो मुमकिन नहीं तेरे लिए ...