लोग कहते हैं,
उसे जाने दो
जो कभी तुम्हारा था ही नहीं
और अगर वाकई
वो तुम्हारा होगा
तो आयेगा वापस
मुस्कुराते हुए
फिर से तुम्हारे ही पास
मीलों की दूरी करके तय...
चुपचाप, बेबस, लाचार,
मान लेती हूँ मैं
वक़्त के इस ज़ख्म को
अपनी नियति मानकर,
आख़िर
तुम्हारा दूर जाना
एक ज़ख्म ही तो है
मेरी आत्मा पर...
मुझे आदत जो नहीं है
तुम्हारे एहसास को भूल कर
महफ़िल में मुस्कुराने की
और पथरायी आँखों में
तुम्हारे गुलाबी, महके हुए
सपने सजाने की...
अपनी मर्ज़ी से आना तुम्हारा,
वक़्त की मर्ज़ी से जाना तुम्हारा,
और बीच में हूँ मैं
किसी पेंडुलम की तरह
निर्लक्ष्य झूलती हूयी
तुम्हारी मर्ज़ी
और वक़्त की मर्ज़ी के बीच,
क्योंकि मेरे पास
है ही नहीं मेरी मर्ज़ी
जोकि तुम्हें पा सकूँ,
तुम्हें चाह सकूँ,
तुम्हें रोक सकूँ...
मेरे पास तो है बस
मेरी नियति
वक़्त से, हालातों से
और तुमसे लड़ती हुयी...
उसे जाने दो
जो कभी तुम्हारा था ही नहीं
और अगर वाकई
वो तुम्हारा होगा
तो आयेगा वापस
मुस्कुराते हुए
फिर से तुम्हारे ही पास
मीलों की दूरी करके तय...
चुपचाप, बेबस, लाचार,
मान लेती हूँ मैं
वक़्त के इस ज़ख्म को
अपनी नियति मानकर,
आख़िर
तुम्हारा दूर जाना
एक ज़ख्म ही तो है
मेरी आत्मा पर...
मुझे आदत जो नहीं है
तुम्हारे एहसास को भूल कर
महफ़िल में मुस्कुराने की
और पथरायी आँखों में
तुम्हारे गुलाबी, महके हुए
सपने सजाने की...
अपनी मर्ज़ी से आना तुम्हारा,
वक़्त की मर्ज़ी से जाना तुम्हारा,
और बीच में हूँ मैं
किसी पेंडुलम की तरह
निर्लक्ष्य झूलती हूयी
तुम्हारी मर्ज़ी
और वक़्त की मर्ज़ी के बीच,
क्योंकि मेरे पास
है ही नहीं मेरी मर्ज़ी
जोकि तुम्हें पा सकूँ,
तुम्हें चाह सकूँ,
तुम्हें रोक सकूँ...
मेरे पास तो है बस
मेरी नियति
वक़्त से, हालातों से
और तुमसे लड़ती हुयी...
मानवीय संवेदनाओं से भरी एक शक्तिशाली कविता , शब्द चयन के लिए बधाई
ReplyDeleteशुक्रिया...
ReplyDeleteसंवेदनाओं को व्यांत करती .... भावमय रचना ...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletenever be on the receiving end...
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