कितनी मुद्दतों के बाद
कल रात मिले थे
जब ख़्वाबों में हम,
तुम्हारे अक्स को देखा
और हकीकत मान लिया मैंने...
कंपकंपाती हुयी उँगलियों से
छूकर तुम्हारे चेहरे को
महसूस करना चाहा था जब,
बड़ा सर्द था वो एहसास
तुम्हारी छुअन का...
महकती हुयी सी खुशबू
जो हर घड़ी, हर लम्हा
मेरे अरमानों से जुड़ी रहती है,
ख़्वाबों में भी बांधे रखती थी
मेरा तुम्हारा दामन...
आज क्यूँ ऐसा हुआ
कि तुम्हारा मेरे सामने होना
मुझे प्रतीत न हुआ!
तुम्हारी छुअन, तुम्हारी महक
मुझे महसूस ना हो सकी...
माना कि ख़्वाबों और हकीकत में
ज़मीन से फ़लक का फासला है
पर एक रोज़,
मेरी ज़ुल्फों के साये में
बड़ी मासूमियत से तुमने ही कहा था
कि हमारे दरम्यान कोई फासला नहीं,
कोई बंधन नहीं...
फिर क्यूँ आज ख़्वाबों में
तुम्हे छूना, तुम्हे महसूस करना
मेरे लिए मुमकिन ना था!
तुम्हे पाने की चाहत मेरी
ख़्वाबों में भी पूरी ना हो सकी,
तरसती हुयी छलकती आँखें
संजो ना सकी तुम्हे पाने का अरमान
और हमेशा की तरह फिर से
मुद्दतों बाद देखा हुआ ख्वाब,
एक पल में ही टूट गया...