सबसे दूर कहीं छुप जाने के लिए,
एक ज़रिया भी दिखा नहीं,
और यादों से बच निकलने का,
कोई रास्ता नज़र नहीं आया...
भटकते रास्तों में साथ चलने को,
एक मुसाफ़िर मिला नहीं,
और मुझे पहचानने वाला दूर तक,
कोई शख्स नज़र नहीं आया...
पल भर रुक कर सुस्ताने के लिए,
कहीं छाया भी नसीब नहीं,
और एक अदद बाग़ तो क्या,
कोई शज़र नज़र नहीं आया...
आखिरी बार मिले उस मोड़ पर,
फिर मुड़कर देखा कभी नहीं,
और तेरी गलियों में जाने वाला,
कोई रास्ता नज़र नहीं आया...
कई ज़माने तक एक ही ख्वाब देखा,
जो हकीकत बना कभी नहीं,
और अब कई रातों से आँखों में,
कोई ख्वाब नज़र नहीं आया...
हर तरफ़ वो प्यादे ही चाल चलते रहे,
जो सामने दिखे कभी नहीं,
और ज़िन्दगी के खेल में लड़ने वाला,
कोई सिकंदर नज़र नहीं आया...
हादसों ने कर दिया मुश्किल जीना
फिर चैन भी मिला कभी नहीं,
और थोड़ी सी ख़ुशी बरसाने वाला,
कोई बादल नज़र नहीं आया...
इतना वक्त कहां मिलता है मिताली...
ReplyDeleteख़ूबसूरत रचना
कई ज़माने तक एक ही ख्वाब देखा,
ReplyDeleteजो हकीकत बना कभी नहीं,
और अब कई रातों से आँखों में,
कोई ख्वाब नज़र नहीं आया...
behad pyari panktiyaan...
bahut acchhi samvedansheel rachna.
ReplyDeleteहर तरफ़ वो प्यादे ही चाल चलते रहे,
ReplyDeleteपर इन प्यादों को चलाने वाला तो कोई और होता है
Beautiful as always.
ReplyDeleteIt is pleasure reading your poems.