Thursday, August 5, 2010

कश्मकश...

अजीब सी कश्मकश,
शुरू कर रही है
मेरे वज़ूद को घेरना,
धीरे-धीरे
बिना आहट के,
दीवारों पर लगे
किसी अनचाहे दीमक की तरह...

बहुत मुश्किल होता है,
कल्पना और हक़ीकत
में से किसी एक को चुनने
का निर्णय लेना...
मन को घेरती हुयी
कश्मकश,
ऐसा करने नहीं देती...

कभी हक़ीकत की दुश्वारियां
रुला देती हैं इतना,
कि वास्तविकता को अपनाने से
डरता है इंसान...
और कभी ऐसा भी
देखने में आता है,
जब कल्पनाओं की सजीवता
और स्मृतियाँ
बांधे रखती हैं इंसान को
अपनी दुनिया से...

हर तरफ बस
एक भ्रम नज़र आता है...
वक़्त कभी हक़ीकत को
झुठला देता है,
तो कभी कल्पनाओं कि दुनिया
उजाड़ देता है...
ऐसे हालातों में
जब कश्मकश पैदा होती है,
तो इन हालातों के पास भी
कोई हल नहीं होता,
मन को घेरती हुयी
कश्मकश का...
फिर चाहे
वो मेरा मन हो
या किसी और का,
कश्मकश तो घेरती जाती है
सबके वज़ूद को,
किसी अनचाहे दीमक कि तरह...

कश्मकश की ये कहानी
चलती रहती है हमेशा,
और ना चाहते हुए भी,
पूरी ज़िन्दगी
यूँ ही काटनी पड़ती है,
अपनी कश्मकश से
थोड़ा-थोड़ा
रोज़ लड़ते हुए...

5 comments:

  1. मंगलेश डबराल को जानती हैं ?

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  2. gr8.... bahut gehraayi hai poem mai.....

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  3. Hi..

    Pahli baar hi main hun aaya..
    Sapnon ke es ghar main..
    Aur kashmakash se bhi gujra..
    Kavita ki nazar main..

    Sundar abhivakti..

    Deepak..

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  4. kalpan ek khula aakash hai jindagi hakikat hai ishwar ne do pankhe insan ko agar laga dete to aasaman me ud kar kalapanao ko pakadane ka prayash karata
    arganikbhagyoday.blogspot.com

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  5. अजीब कशमकश से भरी राहें हैं...
    कभी फिसलन कदम टिकने नहीं देती,
    कभी कांटे कदम उठने नहीं देते...

    (ये शब्द रचना सरबनी बनर्जी की है )

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