Sunday, April 21, 2013

दरिया...

एक दरिया था 
महकते जज़्बातों  का,
जो तब-तब उमड़ता था 
जब-जब तेरा ज़िक्र 
मेरे कानों से गुज़रता हुआ 
सीधे जा पंहुचता था 
मेरे दिल की गहराई में ...

इस जज़्बाती दरिया ने 
कभी तुझे निराश किया हो 
ये मुमकिन नहीं,
आखिर तेरे लिए ही
इस दरिया का महकना 
बन गया था 
इस दरिया की नियति ...

आज तू नहीं,
तुझसे जुड़ी कोई याद नहीं,
कोई महकते जज़्बात नहीं 
और ना ही है 
वो उमड़ता हुआ सैलाब 
इस दरिया में ...

सूख चूका है 
ये जज़्बाती दरिया 
तेरी प्यास बुझाते बुझाते,
रह गए हैं बस
पत्थर और मटमैली धूल   
कि तू अब लौट के आने की 
ज़हमत मत उठाना ...

तुझे अपनाने के लिए 
बहाना होगा मुझे 
नये जज्बातों को 
जो मुमकिन नहीं मेरे लिए, 
क्योंकि अब फिर से 
उस सैलाब को बहाने के लिए 
खोदना होगा तुझे 
मेरे दिल की ज़मीन को 
जो मुमकिन नहीं तेरे लिए ... 

7 comments:

  1. अब पथरीली सतह के सिवाय कुछ नहीं । बेहद खूबसूरत ।

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  2. bahut sundar aur haqikat ke karib

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  3. बहुत ही प्यारी और भावो को संजोये रचना......

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  4. बहुत ही उम्दा ।

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