एक रोज़ हुआ था कुछ ऐसा
कि हाथ खाली थे मेरे,
ना संभावनाएं थी,
ना संवेदनाएं थी,
और ना ही था
परिस्थितियों के हिसाब से
अधबुनी उम्मीदों का ताना-बाना…
उस रोज़,
पहली बार निकला था
मेरे मुंह से
सच्चाई की मानिंद
सबके दिलों में उतरता,
सबको खुश रखता,
एक सफ़ेद झूठ…
कभी सुना था
ना जाने किस के मुंह से,
कि एक झूठ
जो दे जाये किसी को
तमाम खुशियाँ,
तकलीफ देने वाले सच से
कहीं बेहतर है,
पर इस कथ्य के बाद
बेहतर तो कहीं कुछ भी ना हुआ…
लोग मौका देखकर
बदल देते हैं अपने रूप,
जीते हैं एक मायाजाल में फंसी
दबी-घुटी सी ज़िन्दगी,
रखते हैं सबके साथ-साथ
खुद को ही धोखे में
और जी खोलकर बोलते हैं झूठ
अपनी बदतर परिस्थितियों में
खुद को खड़े रखने के लिए…
उस "बेचारे" झूठ को तो
ये भी नहीं मालूम होता
कि किस इंसान की
किस परिस्थिति में
किस कदर उसे
बनना मिटना पड़ता है,
अगर झूठ चल गया तो
"क्या बात है, भई"
और जो चल ना सके तो
"झूठ के पाँव नहीं होते,
आखिर कब तक भागता"…
उस रोज़,
जब बोला था मैंने झूठ,
खुद को परिस्थितियों
और परेशानियों के तराजू में तोलकर,
तो आँख बंद करके
कर लिया था यकीन
तुमने, उसने, सबने
और दे डाली थी
मेरे झूठ को
एक मूक स्वीकृति
और मुझे एक मौन शाबासी…
तब समझ आया था मुझे
कि एक झूठे को अपनाने की हिम्मत
दूसरा झूठा ही कर सकता है,
इसलिए तो झूठा होकर
एक झूठे को अपनाना
इस दुनिया का
सबसे आसान काम है,
लेकिन ये भी
हर किसी के बस की बात नहीं…
कि हाथ खाली थे मेरे,
ना संभावनाएं थी,
ना संवेदनाएं थी,
और ना ही था
परिस्थितियों के हिसाब से
अधबुनी उम्मीदों का ताना-बाना…
उस रोज़,
पहली बार निकला था
मेरे मुंह से
सच्चाई की मानिंद
सबके दिलों में उतरता,
सबको खुश रखता,
एक सफ़ेद झूठ…
कभी सुना था
ना जाने किस के मुंह से,
कि एक झूठ
जो दे जाये किसी को
तमाम खुशियाँ,
तकलीफ देने वाले सच से
कहीं बेहतर है,
पर इस कथ्य के बाद
बेहतर तो कहीं कुछ भी ना हुआ…
लोग मौका देखकर
बदल देते हैं अपने रूप,
जीते हैं एक मायाजाल में फंसी
दबी-घुटी सी ज़िन्दगी,
रखते हैं सबके साथ-साथ
खुद को ही धोखे में
और जी खोलकर बोलते हैं झूठ
अपनी बदतर परिस्थितियों में
खुद को खड़े रखने के लिए…
उस "बेचारे" झूठ को तो
ये भी नहीं मालूम होता
कि किस इंसान की
किस परिस्थिति में
किस कदर उसे
बनना मिटना पड़ता है,
अगर झूठ चल गया तो
"क्या बात है, भई"
और जो चल ना सके तो
"झूठ के पाँव नहीं होते,
आखिर कब तक भागता"…
उस रोज़,
जब बोला था मैंने झूठ,
खुद को परिस्थितियों
और परेशानियों के तराजू में तोलकर,
तो आँख बंद करके
कर लिया था यकीन
तुमने, उसने, सबने
और दे डाली थी
मेरे झूठ को
एक मूक स्वीकृति
और मुझे एक मौन शाबासी…
तब समझ आया था मुझे
कि एक झूठे को अपनाने की हिम्मत
दूसरा झूठा ही कर सकता है,
इसलिए तो झूठा होकर
एक झूठे को अपनाना
इस दुनिया का
सबसे आसान काम है,
लेकिन ये भी
हर किसी के बस की बात नहीं…