माँ,
एक ऐसा शब्द
जो समेटे है अपने आप में एक दुनिया,
जो बाँट दे निःस्वार्थ भाव से सारी खुशियाँ...
माँ,
एक ऐसा शब्द
जो है सहनशीलता की निशानी,
झेलती आई है पीड़ा सदियों पुरानी...
हर इंसान का अस्तित्व माँ ने बनाया है,
फिर क्यों इंसान
अपनी माँ को ही छलता आया है??
लोगों की इस भीड़ में,
दुनिया की इस लडाई में,
अपनी माँ को ही भुलाता आया है
और अपनी हर गलती के लिए,
माँ को ही रुलाता आया है...
फिर भी
माँ हर दुःख सहती है,
दिखाने के लिए ही सही
पर हमेशा खुश रहती है...
पर क्यों,
और आखिर क्यों??
क्योंकि
वो तो बस माँ है,
ममता का जीता-जागता संसार है...
Sunday, May 8, 2011
Tuesday, May 3, 2011
प्रतीक्षा...

इन पलकों को आराम मिलेगा,
दरवाज़े पर नज़रें गड़ाये रहने से...
कब पड़ेगा पहला कदम तुम्हारा
मेरी दुनिया में, मेरे सपनों में,
मेरी ज़िन्दगी में
और कब ख़त्म होगी मेरी प्रतीक्षा...??
तुम्हारी ये प्रतीक्षा
वेदना के सिवाय क्या देती है??
वो दुःख अन्दर तक
घायल कर देता है
और अंतर्मन में बसी
तुम्हारी तस्वीर
जैसे हंसती है मुझ पर,
मेरी तन्हाई पर...
पर तुम्हे इससे क्या??
तुमने तो कसम खायी है
मुझसे न मिलने की,
मुझसे लुका-छिपी खेलने में ही
शायद तुम्हें आनंद मिलता हो...
पर क्या
इन आँखों से बहते आंसू
और साँसों की बढ़ी हुयी रफ़्तार भी
तुम्हें विचलित ना कर सकी??
कभी तो
मुझसे मिलने आते,
कभी तो
मेरे संदेशों का जवाब देते,
कभी तो
मेरी हालत पर तरस खाते,
और अहसान समझ के ही सही
मुझसे मिलने आ जाते...
तब शायद किसी दिन
मेरी पलकों को आराम मिल जाता,
मेरे सपनों को नया आयाम मिल जाता,
और तुम्हारी प्रतीक्षा में
मेरा जीवन सफल हो जाता...
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