Thursday, January 23, 2014

समीकरण...

एक नन्हा सा पल था
बिलकुल नन्हा सा
इतना कि जिसमें वो
बारिश की पहली बूंद
तय कर लेती थी अपना सफर
आसमान से ज़मीन के बीच का
और पाते ही मिट्टी का स्पर्श
बिखर जाती थी
सौंधी सी महक के रुप में
यूं ही चारों तरफ...

एक ऐसा भी पल था
जो उन्मुक्त होकर
अक्सर लेता था टक्कर
समय की सीमाओं से
समुन्दर के आगोश में उठती
उन चंचल लहरों की तरह
जो इतनी जिद्दी थी
कि उन्हें खुद समुन्दर भी
रख ना पाया
अपने काबू में कभी...

सोच ले जाती है अक्सर
जीवन के उन पुराने पन्नों की ओर
जहाँ मेरा होना या ना होना
तय होता था
तुम्हारे होने या ना होने से...
लेकिन यथार्थ,
यथार्थ तो डरावना है बहुत
उस धुंधले से सपने की तरह
जहाँ मेरे नन्हे से पलों में
तुम्हें पाने की ख़्वाहिश
लेती रहती हैं सांसे
जबकि तुम्हारे उन्मुक्त पल
वार करते हैं अक्सर
मेरे उन्ही नन्हे से पलों की
जीवंतता पर...

जैसे मिट्टी की सौंधी सी महक
कभी मन से भुलायी नहीं जाती
और समुन्दर की चंचल लहरें
कभी संभली हुयी पायी नहीं जाती
उसी समीकरण के अनुरूप
ना तुम मुझे भुला सकते हो
ना मैं तुम्हें पा सकती हूँ...
कौन जाने,
क्या पता इसी को कहते हैं
पलों के बीच का
असंतुलित समीकरण...

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