Wednesday, May 12, 2010

खुद को कैसा पाया मैंने ???


बस में भरी हुयी भीड़ के बीच,
अनदेखे अनजाने चेहरों के बीच,
खुद को तनहा पाया मैंने...

बाज़ार में बिकते सामानों के बीच,
हज़ारों अमीर खरीदारों के बीच,
खुद को बिकता पाया मैंने...

अपने बड़े से आशियाने के बीच,
अपने सगे संबंधों के बीच,
खुद को घुटता पाया मैंने...

कैसे हंसू, कैसे रोऊँ,
कैसे त्यौहार मनाऊं...
किसे अपना कहूँ, किसपर विश्वास करूँ,
किस से सहारा मैं पाऊं...

पल-पल हरदम इस जीवन में,
खुद को मरता पाया मैंने,
बेड़ियों में दम तोड़ते-तोड़ते,
खुद को "औरत" पाया मैंने...

7 comments:

  1. उम्र से आगे की सोच... बहुत गंभीर कविता

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  2. "पल-पल हरदम इस जीवन में,
    खुद को मरता पाया मैंने,
    बेड़ियों में दम तोड़ते-तोड़ते,
    खुद को "औरत" पाया मैंने..."
    औरत होने का दर्द बहुत मार्मिक बन पड़ा है - बधाई

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  3. बस में भरी हुयी भीड़ के बीच,
    अनदेखे अनजाने चेहरों के बीच,
    खुद को तनहा पाया मैंने...

    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं | कभी हमारे ब्लॉग पर भी आये -

    jazbaattheemotions.blogspot.com

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  4. aap sab ka bahut-bahut shukriya.......

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  5. बहुत ही मार्मिक कविता...

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  6. aap sabhi ka bahut-bahut shukriya...aapse ek anurodh hai ki jahaan par galti lage, wahaan par apne sujhaaw bhi avashya dein...taarif ke sath-sath aalochnayein bhi swikarya hain...

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  7. औरत होने का दर्द बहुत मार्मिक बन पड़ा है - बधाई

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