चुन-चुन कर मैंने
समेट लिया
तुम्हारी यादों का कारवाँ
और बना ली एक पोटली ...
दिल की ना सुन कर
लगाया जोर दिमाग पर
कि कहीं कोई याद
बाकी तो ना रह गयी ...
दिमाग ने भी चुपचाप
लगा दी मुहर
और मार दिया ताना
मुझ पर हँसते हुए
कि 'सब समेटने के बाद
कुछ भी बिखरा नहीं रहता-
ओ पागल लड़की' ...
अब बस मैं थी, तन्हाई थी,
और थी मेरी नज़रों के सामने
तुम्हारी यादों की पोटली,
तुम्हारे दिए हुए
लाल जोड़े के साथ रखी हुयी ...
कभी मैं देखती
तुम्हारी तस्वीर को,
कभी मैं सोचती
खुद की तकदीर को,
कभी महसूस करती
यादों की पोटली से झांकती हुयी
तुम्हारी याद को ...
तभी अचानक से लगा
कि हंस रही है तुम्हारी तस्वीर
मेरे चेहरे पर
कई भाव देखकर,
पूछ रहा है वो सुर्ख लाल जोड़ा
कि क्यों बाहर निकाला मुझे
खुद से दूर करने के लिए,
चिढ़ा रही है मुझे
वो यादों की पोटली
कि रह सकती है हमसे दूर होकर
तो शौक से समेट ले हमें
और निकाल बाहर कर
दिल और दिमाग की गहराई से ...
ऐसा लगा
कि जैसे इन सब के बीच
कहीं दूर भटक गयी थी मैं
यादों और हक़ीकत के बीच,
आखिर ये चुनाव मेरा ही तो था
कि किसके साथ करनी है बसर
मुझे अपनी बची हुयी ज़िन्दगी ...
इस बार मैंने दिमाग की ना सुनकर
लगाया दिल पे जोर
और सुनी एक दबी हुयी
मगर प्यारी सी आवाज़-
"तुम्हारी यादों से खूबसूरत
तो कुछ भी हो नहीं सकता ..."
बस यही सोच कर
हो गया था फैसला
और चुन लिया था मैंने
तुम्हारी यादों और ज़िन्दगी की हक़ीकत में से
तुम्हारी यादों को ...
आधी रात बीत गयी थी
तुम्हारी यादों की पोटली समेटने में,
आधी बीत रही है
तुम्हारी यादों को फिर से
अपने आसपास बिखेरने में,
और इस समेटने-बिखेरने के बीच
मैं भी बनती जा रही हूँ
तुम्हारी यादों की पोटली की
एक 'मासूम' सी याद ...
समेट लिया
तुम्हारी यादों का कारवाँ
और बना ली एक पोटली ...
दिल की ना सुन कर
लगाया जोर दिमाग पर
कि कहीं कोई याद
बाकी तो ना रह गयी ...
दिमाग ने भी चुपचाप
लगा दी मुहर
और मार दिया ताना
मुझ पर हँसते हुए
कि 'सब समेटने के बाद
कुछ भी बिखरा नहीं रहता-
ओ पागल लड़की' ...
अब बस मैं थी, तन्हाई थी,
और थी मेरी नज़रों के सामने
तुम्हारी यादों की पोटली,
तुम्हारे दिए हुए
लाल जोड़े के साथ रखी हुयी ...
कभी मैं देखती
तुम्हारी तस्वीर को,
कभी मैं सोचती
खुद की तकदीर को,
कभी महसूस करती
यादों की पोटली से झांकती हुयी
तुम्हारी याद को ...
तभी अचानक से लगा
कि हंस रही है तुम्हारी तस्वीर
मेरे चेहरे पर
कई भाव देखकर,
पूछ रहा है वो सुर्ख लाल जोड़ा
कि क्यों बाहर निकाला मुझे
खुद से दूर करने के लिए,
चिढ़ा रही है मुझे
वो यादों की पोटली
कि रह सकती है हमसे दूर होकर
तो शौक से समेट ले हमें
और निकाल बाहर कर
दिल और दिमाग की गहराई से ...
ऐसा लगा
कि जैसे इन सब के बीच
कहीं दूर भटक गयी थी मैं
यादों और हक़ीकत के बीच,
आखिर ये चुनाव मेरा ही तो था
कि किसके साथ करनी है बसर
मुझे अपनी बची हुयी ज़िन्दगी ...
इस बार मैंने दिमाग की ना सुनकर
लगाया दिल पे जोर
और सुनी एक दबी हुयी
मगर प्यारी सी आवाज़-
"तुम्हारी यादों से खूबसूरत
तो कुछ भी हो नहीं सकता ..."
बस यही सोच कर
हो गया था फैसला
और चुन लिया था मैंने
तुम्हारी यादों और ज़िन्दगी की हक़ीकत में से
तुम्हारी यादों को ...
आधी रात बीत गयी थी
तुम्हारी यादों की पोटली समेटने में,
आधी बीत रही है
तुम्हारी यादों को फिर से
अपने आसपास बिखेरने में,
और इस समेटने-बिखेरने के बीच
मैं भी बनती जा रही हूँ
तुम्हारी यादों की पोटली की
एक 'मासूम' सी याद ...