Wednesday, May 8, 2013

यादों की पोटली ...

चुन-चुन कर मैंने 
समेट लिया 
तुम्हारी यादों का कारवाँ 
और बना ली एक पोटली ...
दिल की ना सुन कर 
लगाया जोर दिमाग पर 
कि कहीं कोई याद 
बाकी तो ना रह गयी ...
दिमाग ने भी चुपचाप 
लगा दी मुहर 
और मार दिया ताना 
मुझ पर हँसते हुए 
कि 'सब समेटने के बाद 
कुछ भी बिखरा नहीं रहता- 
ओ पागल लड़की' ...

अब बस मैं थी, तन्हाई थी,
और थी मेरी नज़रों के सामने 
तुम्हारी यादों की पोटली,
तुम्हारे दिए हुए
लाल जोड़े के साथ रखी हुयी ...
कभी मैं देखती 
तुम्हारी तस्वीर को,
कभी मैं सोचती 
खुद की तकदीर को,
कभी महसूस करती 
यादों की पोटली से झांकती हुयी 
तुम्हारी याद को ...

तभी अचानक से लगा 
कि हंस रही है तुम्हारी तस्वीर 
मेरे चेहरे पर
कई भाव देखकर,
पूछ रहा है वो सुर्ख लाल जोड़ा 
कि क्यों बाहर निकाला मुझे 
खुद से दूर करने के लिए,
चिढ़ा रही है मुझे 
वो यादों की पोटली
कि रह सकती है हमसे दूर होकर 
तो शौक से समेट ले हमें 
और निकाल बाहर कर 
दिल और दिमाग की गहराई से ...

ऐसा लगा 
कि जैसे इन सब के बीच 
कहीं दूर भटक गयी थी मैं 
यादों और हक़ीकत के बीच,
आखिर ये चुनाव मेरा ही तो था 
कि किसके साथ करनी है बसर
मुझे अपनी बची हुयी ज़िन्दगी ...
इस बार मैंने दिमाग की ना सुनकर 
लगाया दिल पे जोर 
और सुनी एक दबी हुयी 
मगर प्यारी सी आवाज़-
"तुम्हारी यादों से खूबसूरत 
तो कुछ भी हो नहीं सकता ..."
बस यही सोच कर 
हो गया था फैसला 
और चुन लिया था मैंने 
तुम्हारी यादों और ज़िन्दगी की हक़ीकत  में से 
तुम्हारी यादों को ...

आधी रात बीत गयी थी 
तुम्हारी यादों की पोटली समेटने में,
आधी बीत रही है 
तुम्हारी यादों को फिर से 
अपने आसपास बिखेरने में,
और इस समेटने-बिखेरने के बीच 
मैं भी बनती जा रही हूँ 
तुम्हारी यादों की पोटली की 
एक 'मासूम' सी याद ...

Thursday, May 2, 2013

अजनबी...

अजनबी होना
दूसरों के लिए, 
शायद
बचा लेता है हमें
गुनाहगार साबित होने से,
लेकिन
होना अजनबी खुद ही से
खड़ा कर देता है
कई सारे ऐसे सवाल,
जिनके जवाब चाहके भी
कभी नहीं मिल पाते...
आख़िर,
हम उस वजूद से
पूछ नहीं पाते कभी
कि बता तेरी रज़ा क्या है
क्यों तू हमारा होकर भी
हम ही से रह जाता है अजनबी...

अक्सर,
धोखा दे देता है हमें
शीशे का एक टुकड़ा भी
क्योंकि छिपा देता है वो
हमारे मन की सच्चाई को
चेहरे के परदे से…
किसी अजनबी से लड़ना
इस ज़माने में
कोई बड़ी बात नहीं,
बड़ी बात तो है
खुद ही से लड़ते रहना
तमाम-उम्र,
खुद की ही पहचान के लिये…

Wednesday, May 1, 2013

एक प्याली चाय...

सुबह-सुबह की पहली किरण
सीधे खिड़की से छन के
मेरे चेहरे पर
रौशनी और गर्मी की
प्यारी सी थपकी देती रही
और मुझे लगा
जैसे तुम्हारे नर्म हाथ
मेरे बालों से खेलते हुए
मेरे गालों तक आ पहुंचे हो…
तुम्हें देखने के ख़याल से,
तुम्हारी छुअन के एहसास से
अनायास ही,
मुस्कुरा उठे थे मेरे लब
और याद आया मुझे
वो एक लम्हा
जब धीरे से मेरे कान में
ये कह कर
"तुम नींद में मुस्कुराती हुयी
बड़ी प्यारी लगती हो",
तुम करते थे
मेरे दिन की शुरुआत...
बिस्तर के किनारे रखी पुरानी मेज
और उस पर सजी
एक प्याली चाय
अब भी करती है इंतज़ार तुम्हारा,
कि उसे भी आदत है
पहले तुम्हारे होठों से लगने की,
फिर तुम्हारे हाथों से
मेरे होठों तक पंहुचने की…
आज भी जब
मैं जी रही हूँ बस
तुम्हारी हसीन यादों के सहारे,
सुबह-सुबह की ये
एक प्याली चाय
बन गयी है मेरी हमराज़,
करती है हर सुबह
तुम्हारी ही तरह
मेरे उठने का इंतज़ार 
और करती है मुझे
तुम्हारी ही तरह
"मासूम" सा प्यार...