Friday, September 16, 2011

दूरियां...

१)

कभी नापा न गया
मेरे घर की देहरी से
तेरे घर के दरवाज़े की
उस लम्बाई को...
इतना लम्बा रास्ता
जो कभी कम तो न हुआ,
पर बड़ा दिए थे उसने
तेरे मेरे दरम्यान
वो फासले...
हौले से उन फासलों ने
वो काम कर दिया,
जिससे भुला दिए गए
सब रूहानी जज़्बात
और पैदा कर दी गयी
कभी न मिटने वाली
दूरियां...



२)

ये सख्त सी धरती
और वो खाली सा आसमान,
कैसे महसूस करते हैं
अपने बीच की दूरियां...
शायद उनको भी लगता होगा
कि कहीं किसी ऐसी जगह
जहाँ एक क्षितिज होगा,
वहां हो पायेगा उनका मिलन...
पर वो चाह कर भी
नहीं पाट पाते
अपने बीच की
दूरियां...

Wednesday, September 14, 2011

देखना है...

ख़्वाबों को सच होते हुए देखना है
फ़लक को करीब से छू कर देखना है

काँटों ने चुभन दी तो हम संभल गए
फूलों की छुवन से हमें रोकर देखना है

बरसात के पानी से है आँगन भरा हुआ
कागज़ की एक कश्ती को उतारकर देखना है

भीड़ में ज़माने की कई चेहरे नज़र आये
किस गली में कौन चोर है, यार देखना है

आईने में खुद को देखा है तमाम उम्र
अब तेरी नज़र से अपना अक्स देखना है

उससे मेरा रिश्ता महका किया बरसों तलक
कैसे कहेगा अजनबी, मुझको ये देखना है

खताओं के बदले सज़ा का रिवाज़ पुराना है
इम्तिहाने-इश्क से गुज़र कर देखना है

सह गए तेरे संग मोहब्बत के रंजो-ग़म
अब अकेले इस राह पे मर कर देखना है

Friday, September 9, 2011

उसकी कहानी...

वो सिसक रही थी,
घुट रही थी कहीं अपने ही भीतर...
शरीर पर पड़े थे निशान
कहीं चोट के, कहीं ज़ख्म के,
टांको ने सी तो दिए थे घाव
पर नहीं सी पाया
टूटे सपने, टूटे अरमानों को...

आज वो खड़ी थी चौराहे पर
जहाँ भीड़ में भी वो तनहा थी...
जिसने छोड़ दिया था उसे
ऐसी हालत पर,
वो कहने को उसका अपना था
पर कितना अपना था,
इसकी ख़बर किसी को ना थी...

आज आईने ने भी
इनकार कर दिया था उसे पहचानने से...
सुर्ख लाल जोड़े में लिपटी
सजी धजी थी वो,
जब आईने ने उसका स्वागत
मुस्कुरा के किया था
उस खुशनसीब दिन में...

पर, काले घेरों में
अंदर तक धंसी, बुझी हुयी सी
रोती आँखें, सूजे हुए होंठ,
ज़ख्मों से भरा चेहरा
जो मुरझा चुका था,
लाख कोशिशों के बाद भी आज
आइना ना पहचान सका...

वो चाहती थी कुछ कहना
पर उसकी आवाज़ को
ना मिला कोई सुनने वाला
और दबा दी गयी उसकी आवाज़...
जैसे धर्म के नाम पर बलि देते वक़्त
मिमिया के रह जाती है
एक मासूम सी बकरी...

वो पूछना चाहती थी सबसे
कि उसे सज़ा मिली तो क्यूँ ???
एक औरत होना क्या
एक औरत का सबसे बड़ा गुनाह है ???
पर उसे नहीं मिला कोई जवाब,
सबसे अकेले वो बस रोती रही...
फिर भी अनकही अनसुनी रह गयी
उसकी कहानी...

Wednesday, September 7, 2011

मुझको सज़ा मिली...


मेरे ग़म ने तो मुझको हमेशा सहारा दिया

तेरी खुशियों को माँगा तो मुझको सज़ा मिली


हर तरफ से बस अँधेरे ने डराया मुझको

दिल जला के रौशनी की तो मुझको सज़ा मिली


उस तरफ कोई रास्ता ना गया जहाँ मंज़िल थी मेरी

इक भटकी सी मंज़िल चुनी तो मुझको सज़ा मिली


ना चाहा था खुद को धोखे में रखना कभी

पर एक सच को छुपाया तो मुझको सज़ा मिली


लफ्ज़, ख्याल, सपने, अरमान, सब खोते चले गए

फिर तन्हाई का सहारा लिया तो मुझको सज़ा मिली


ना ख्वाहिश चाँद-सितारों की, ना चाहा था गुल्ज़ारों को

बस एक पत्थर की पूजा की तो मुझको सज़ा मिली


मेरा आशियाना हरदम उजड़ता रहा तूफानों से

फिर भी मैं बस मुस्कायी तो मुझको सज़ा मिली


मेरी मुहब्बत पे तुझसे कोई सवाल करे ये मंज़ूर ना था

जो दिल में मैंने मुहब्बत छुपायी तो मुझको सज़ा मिली