Thursday, July 22, 2010

इच्छाएँ और परिस्थितियाँ...

नयी इच्छाओँ ने जन्म लेना
शुरू कर दिया है...
ये कैसे हो गया?
अभी तो कई पुरानी इच्छाएँ,
अपने साकार होने की
प्रतीक्षा कर रही हैँ...
अब इतनी सारी इच्छाएँ
कैसे पूरी होँगी?
दिमाग ने सोचने से
मना कर दिया है,
कह रहा है- "मन से जन्मी इच्छाएँ,
मैँ नहीँ सुलझाऊँगा.."
और मन कह रहा है-
"फिक्र मत करना और सबकुछ
परिस्थितियोँ पर छोड़ देना,
क्योँकि ये परिस्थितियाँ
या तो इच्छाएँ पूरी कर देँगी
या फिर स्वत: ही उन्हेँ दबा देँगी.."
अब सोच रही हूँ कि
क्योँ ना अपनी नयी-पुरानी इच्छाओँ के साथ,
करूँ परिस्थितियोँ का इंतजार...
आखिर,
परिस्थितियोँ पर ही तो निर्भर है,
इन इच्छाओँ की परिणीती...

Tuesday, July 20, 2010

अधूरापन...

कई दिनोँ बाद
खोला था वो पुराना संदूक।
कुछ कपड़े,
कान के झुमकोँ की पोटली
और एक डायरी,
किसी कैदी की तरह
चुपचाप बैठे दिखे।
ये सब भी मेरी तरह ही,
उस ख्वाब की निशानियाँ थी
जो आँखोँ मेँ सजा तो सही
पर हकीकत ना बन पाया।
जो कुछ भी था वो,
पर एक ख्वाब से परे तो ना था...
कोई विशेषण भी नहीँ था,
जो इस ख्वाब के मायने बढ़ाता।

हर महिने की
एक तयशुदा तारीख को खुलने वाला वो संदूक,
वो कपड़े, वो झुमके,
वो फटती हुई ज़िल्द वाली डायरी,
सब पुराने हो चले थे,
पर उनमेँ आज भी
उस अधूरे रिश्ते के ख्वाब की झलक दिखती है।

आज सोचती हूँ,
रिश्ते जब चाह कर भी जुड़ नहीँ पाते,
तो अधूरे रह जाते हैँ...
ठीक उसी तरह,
जैसे कोई तस्वीर के
पूरी होने से पहले ही
रंग खत्म हो जाए...
और तब,
अधूरे रिश्ते भी अधूरी तस्वीर से नज़र आते हैँ।

रिश्ते होँ या तस्वीरेँ,
प्यार से ही सँजोये जाते हैँ,
बिलकुल
एक मीठे ख्वाब की तरह...
पर अगर ऐसा
कभी संभव ना हो तो,
रिश्ते होँ या तस्वीरेँ,
अधूरे रहने पर
अधूरा ख्वाब बन जाते हैँ...
और जीवन मेँ
अधूरापन छोड़ जाते हैँ...

Monday, July 19, 2010

मेरा गाँव...

शहर के पक्के मकान की छत से
सामने दिखने वाली,
उस ऊँची पहाड़ी की तलहटी पर
धीरे-धीरे सूखती हुई
एक नदी है,
जिसके किनारे बसा है
एक छोटा सा गाँव...

कुछ साल पहले तक,
उधर चीड़ और देवदार के
घने जंगल हुआ करते थे,
वँहा की साफ पानी वाली नदी
सूखी नहीँ थी,
मिट्टी के मकानोँ मेँ भी
रिश्ते पनपते थे,
लहलहाते खेतोँ मेँ पूरे साल
फसलेँ खिलती थी...
सब लोगोँ मेँ प्यार भरा था,
सब मन के सच्चे थे,
दादी से कहानी सुनने वाले
सब बच्चे अच्छे थे,
ये मेरा गाँव था...

दिन बीते, महीने बीते,
कई साल बीत गये...
पेड़ कटते गये,
नदी सूखती गयी,
ना अब वो घने जँगल रहे,
ना मीठे पानी की नदी...
मिट्टी के मकान भी
पत्थर-सीमेन्ट के हो गये,
और अब खेतोँ मेँ भी
फसलेँ कम खिलती हैँ...
लोगोँ ने भी अपने तक रहना
शुरू कर दिया,
और दादी की कहानियाँ भी
बच्चोँ की राह मेँ सो गयी...

लेकिन,
ये अब भी
मेरा गाँव था...
वो गाँव,
जो पक्की सड़कोँ से
शहर तक जुड़ रहा था,
जँहा के लोग नौकरी के लिए
शहर मेँ बस चुके थे...

शायद,
धीरे-धीरे
मेरा गाँव बदल रहा था...

Sunday, July 18, 2010

प्रेम मेँ...

तुम्हारा आना
तपती रेत पर
पानी के फव्वारे सा लगा,
जिसने मेरे तपते मन को
शीतलता पहुँचायी थी...

तुम्हारा मिलना
दिन मेँ देखे
सपने के पूरा होने सा लगा,
जिससे मेरे जीवन मेँ
नई रंगीनियाँ छायी थी...

तुम्हारा देखना
मुझ पर पड़े
चमकते प्रकाश सा लगा,
जिसने मेरे चेहरे की
सुन्दरता बढ़ायी थी...

तुम्हारा बोलना
सुध-बुध खो
देने वाली आवाज़ सा लगा,
जिसके लिए मैँ
बरसोँ से बौरायी थी...

तुम्हारा मुस्कुराना
खिले बाग मेँ
आयी नई बहार सा लगा,
जिससे मेरे जीवन मेँ
खुशियाँ आयी थी...

तुम्हारे पास होने की अनुभूति ने
जीवन का एक
अलग रूप दिखाया था...
अच्छे से तो याद नहीँ पर
शायद,
ऐसा ही हुआ था
प्रेम मेँ...

Saturday, July 17, 2010

कठपुतली...

मैँ एक कठपुतली हूँ,
इशारोँ मेँ नाचने वाली...
चुपचाप, बेहिसाब,
बिना सवाल, बिना जवाब...

मेरा नाम औरत है,
मैँ कठपुतली हूँ
क्योँकि
मैँ गरीब हूँ...
मेरा कोई अस्तित्व नहीँ,
मेरी कोई शान नहीँ,
मेरा कोई सपना नहीँ,
मेरी कोई पहचान नहीँ...
तन नहीँ ढकता मेरा फटे हुए कपड़ोँ से,
पेट नहीँ भरता मेरा एक सूखी रोटी से...
इमारतेँ खड़ी करने के लिए
मैँ मजदूरी करती हूँ,
खुद ज़िन्दा रहने के खातिर
मैँ मजबूरी सहती हूँ...
मेरी डोर ना मेरे हाथोँ,
मैँ खुलकर ना रह पाँऊ,
मेरी डोरी जिसके हाथ मेँ,
उसकी मर्जी से नाच दिखाँऊ...
मैँ पागल कठपुतली...

मेरा नाम भी औरत है,
पर मैँ गरीब नहीँ हूँ...
मेरा एक अस्तित्व है,
और मेरी ऊँची शान है,
मेरे बहुत सपने हैँ,
और मेरी अलग पहचान है...
तन ढकता है मेरा अच्छे महंगे कपड़ोँ से,
पेट हमेशा भरता है स्वादिष्ट पौष्टिक खाने से...
अपने पैरोँ पर खड़ी हूँ मैँ
अब दफ्तर जाती हूँ,
मुझसे परिवार चलता है
अच्छी तन्ख्वाह कमाती हूँ...

लेकिन फिर भी
मेरे मन की कभी ना होती
मैँ भी निर्भर रहती,
क्योँकि
मेरी डोर ना मेरे हाथोँ
मैँ खुलकर ना रह पाँऊ,
मेरी डोरी जिसके हाथ मेँ
उसकी मर्जी से नाच दिखाँऊ...

मैँ बस एक कठपुतली हूँ
इशारोँ मेँ नाचने वाली...
चुपचाप, बेहिसाब,
बिना सवाल, बिना जवाब...

Friday, July 16, 2010

वो पल...

वो पल,
जब पहली बार नज़रोँ की चिलमन टकराई थी,
दूर कहीँ मन्दिर मेँ किसी ने घण्टी बजाई थी।

वो पल,
जब दो दिल धक्-धक् धड़क रहे थे,
आसमान मेँ काले बादल कड़क रहे थे।

वो पल,
जब दिलो-दिमाग़ मेँ एक नशा छाया था,
एक-दूजे की आँखो मेँ प्यार उमड़ आया था।

वो पल,
जब भावनाऐँ प्रस्फुटित हो रही थी,
सारी दुनिया मानो सँकुचित हो रही थी।

वो पल,
जिन मेँ सारी ज़िन्दगी जी ली,
ज़माने भर की सारी खुशियाँ ले ली...

वो पल,
बीत तो गये पर जीवित हैँ,
आज भी यादोँ मेँ करीब हैँ...

Thursday, July 15, 2010

मजबूरी है...

मम्मी के हाथ का बना खाना अब कहीँ मिलता नहीँ,
अब बिना शिकायत होटल मेँ खाना मजबूरी है।

सुबह की पहली आवाज़ पापा की सुनायी देती थी,
अब अलार्म की आवाज़ से उठना मजबूरी है।

9 से 5 बजे तक स्कूल मेँ बोरियत होती थी,
अब बारह घण्टे दफ्तर मेँ बिताना मजबूरी है।

अपनोँ के साथ रहने का सुख बड़ा निराला था,
अब अकेले परायी जगह मेँ रहना मजबूरी है,

बचपन मेँ देखे थे इन आँखोँ ने कितने सपने,
अब कई रात इन आँखोँ का जागना मजबूरी है।

एक आँसू गिरते ही माँ आँचल मेँ छुपा लेती थी,
अब चुपचाप हर गम को सहना मजबूरी है।

बचपन की बातेँ, बचपन की यादेँ अच्छी लगती है,
हर रात पुरानी तस्वीरोँ को देखना मजबूरी है।

'आगे बढ़ो, सौ साल जीयो'- आशीष ये मिलते हैँ,
अब लगता है हर साल बड़ा होना मजबूरी है।

Wednesday, July 14, 2010

वक्त फिसलता रहा...

बैठी थी सागर के किनारे गीली रेत पर,
देख रही थी सूरज को डूबते हुए हर पल।
कुछ भी तो ना था हुआ बुरा जो शोक मनाती,
ना हुआ कभी मन का जैसा जो उल्लास मनाती।
जीवन का सफर बस यूँ ही कटता रहा,
बहती लहरोँ की तरह वक्त फिसलता रहा।

सोचा, क्योँ ना आज ज़रा पीछे मुड़ कर देखूँ,
क्या खोया क्या पाया इस बारे मेँ कुछ सोचूँ।
पर खोया हुआ वापस तो मुझे नहीँ मिल पाएगा,
और क्या पाना है मुझको, ये कौन मुझे बताएगा।
पुरानी यादोँ मेँ ही जीवन सँवरता रहा,
धीरे-धीरे मुट्ठी से वक्त फिसलता रहा।

चाहा तो था हमेशा हर पल एक सा रहना,
पर वक्त ने माना नहीँ कभी मन का कहना।
वक्त की दासता रही हमेशा मन पर हावी,
वक्त ने फेँकी मन के अरमानोँ पर स्याही।
वक्त को रोकने के लिए मन ज़ोर लगाता रहा,
पर मन थक गया और वक्त फिसलता रहा।

Tuesday, July 13, 2010

गरीब या कंगाल...

झुग्गी-झोपड़ियोँ मेँ रहने वाले,
फुटपाथोँ पर सोने वाले,
सड़कोँ पर भीख माँगने वाले,
होटलोँ मेँ जूठे बर्तन धोने वाले,
कूड़ा-करकट बिनने वाले...

कौन लोग होते हैँ ये?
इतने अजीब क्योँ होते हैँ ये?

तीन साल की पिँकी ने जब मुझसे ऐसे सवाल किए,
क्या बताऊँ उसके सवाल ने मेरे तो बुरे हाल किए।
पहलेपहल कुछ समझ ना पायी,
चुपचाप रही मैँ कुछ कह ना पायी।
कहती भी क्या अगर समझ भी जाती,
कह कर भी क्या मैँ समझा पाती।
कैसे कहती कि- "बेटा, वो लोग तो 'गरीब' हैँ..."
कैसे समझाती कि उनके हमसे अलग नसीब हैँ!
पिँकी ने मुझको झकझोरा,
मेरी खामोशी को तोड़ा।
बड़ी मासूमियत से उसने मुझको कहा-
"आपको नहीँ पता तो मैँ बताऊँ क्या?"
मैँने बोला पिँकी से चल तू ही बता,
मुझे नहीँ पता, मुझको तू ही समझा।
वो तपाक से बोली- 'कंगाल' ऐसे लोगोँ को कहते हैँ,
क्योँकि उनके पास खाने के रुपये नहीँ रहते हैँ।
अब मेरे पास तो कुछ भी रहा नहीँ समझाने को,
उस बच्ची को गरीबी या कंगाली के बारे मेँ बताने को।
उसे ये भी नहीँ पता कि कंगाल को ही गरीब कहा जाता है,
उसके सारे सवालोँ के जवाब मेँ 'गरीब' शब्द भी आता है।
उसने तो बस वही कहा जो इधर-उधर से सुना था,
उसकी सोच का दायरा अभी विकसित कहाँ हुआ था।

Monday, July 12, 2010

भ्रष्टाचार

जनता की प्रतिनिधी है सरकार,
फिर भी फैल रहा भ्रष्टाचार।
क्योँ हर तरफ है रिश्वतखोरी?
हर कोई भर रहा अपनी तिजोरी।
क्या होगा जनता का कल्याण,
जब नेता रखेँगे बस खुद का ध्यान!
ऐसे मेँ,
इस देश की हालत क्या होगी?
हर तरफ मुफ्तखोरी और महंगाई होगी।
जनता क्या करेगी बेचारी,
उसकी तो है बस लाचारी।
क्या करे, जनता को अब कुछ समझ ना आए,
किसे वोट दे और किसकी सरकार बनाए?
हर तरफ है बस लुभावने वादे,
भ्रष्टाचारी नेताओँ के नकली इरादे।
जनता का तो काम है पिसना,
और नेताओँ का काम खिसकना।
अब कौन उठाएगा देश का भार?
कौन बनेगा ज़िम्मेदार?
जब फैल रहा हो भ्रष्टाचार,
तब कौन बनेगा तारण-हार?

Sunday, July 11, 2010

शायरी का किस्सा...

बाहर बारिश बरस रही थी,
और मैँ अंदर तरस रही थी।
सोचा था घूमूँगी-फिरूँगी,
मनचाही मैँ मौज़ करुँगी।
पर बारिश ने काम बिगाड़ा,
मेरा सारा प्लान बिगाड़ा।
मैँने सोचा क्या किया जाए,
कैसे समय बिताया जाए?
देखी पास मेँ रखी डायरी,
मन मेँ आयी एक शायरी।
सोचा क्योँ ना कलम उठाऊँ,
फिर से कोई नज़्म बनाऊँ।
मन मेँ उमड़े कई विचार,
शुरुआत हो गई आखिरकार।
"वो एक नज़र न जाने क्या असर कर गई,
यूँ पड़ी मुझ पर कि मेरा कतल कर गई".
अभी तो मैँ बस इतना ही लिख पायी थी,
दरवाजे पर किसी ने घण्टी बजायी थी।
मैँने जब खिड़की खोली,
दरवाजा खोल - बुआ बोली।
जैसे ही वो अंदर आयी,
मानो आफत संग लायी।
माँ ने बोला - चाय पिला दे,
थोड़ी सी नमकीन खिला दे। मैँने कहा - अभी मैँ लायी,
इतना कहकर रसोई मेँ आयी।
पाँच मिनट मेँ चाय बनाई,
और प्लेट मेँ नमकीन सजाई।
चाय लिए जब मैँ कमरे मेँ पहुँची,
मेरे कानोँ मेँ बुआ की आवाज़ घुसी।
उन्होँने पास रखी मेरी डायरी खोली थी,
नई लिखी शायरी पढ़कर माँ से बोली थी-
"भाभी, आपकी लड़की तो बिगड़ रही है,
आवारा लफंगोँ की तरह शायरी कर रही है..."
इतना सुनते ही मैँ हैरान हुई,
खुद को 'आवारा' सुनकर परेशान हुई।
माँ ने उन्हेँ सफाई देना शुरु किया,
शायद मेरी गवाही देना शुरु किया।
ये तो मेरी बेटी का शौक है,
इसीलिए लिखने मैँ बेखौफ है।
बुआ ने माँ पर चिल्लाना शुरु कर दिया,
शायरी की कमियाँ गिनाना शुरु कर दिया।
"शायरी आवारा लोग लिखते हैँ,
जो प्यार मेँ पागल होते हैँ।
भाभी, अपनी लड़की को संभालो,
उसके आशिक को ढूँढ निकालो,
जिसके लिए वो शायरी लिख रही है
और जिसे महबूब कह रही है..."
गुस्से मेँ आकर मैँने उन्हेँ घूरा,
उन्होँने भी मेरा मुआयना किया पूरा।
माँ को बोली - "लड़की हो गई बड़ी,
शुरु करो तैयारी इसकी शादी की।
वरना लड़की बिगड़ जायेगी,
तुम्हारे हाथ से फिसल जायेगी।
कहो तो मैँ ढूँढू बढ़िया लड़का,
बिलकुल तुम्हारी जात-पात का..."
माँ कुछ भी ना बोली,
बस एक मुस्कान बिखेरी।
मैँ अपने कमरे मेँ आ गई,
अपनी डायरी साथ ला गई।
सोचा कि करूँ शायरी पूरी,
जो पहले रह गई अधूरी।
धीरे-धीरे सोच-सोच कर,
विचारोँ को जोड़-तोड़ कर।
शायरी नहीँ रही अधूरी,
वो अब हो गई थी पूरी।
मन किया बुआ के पास मैँ जाऊँ,
पास बिठाकर शायरी पढ़ाऊँ।
फिर पूछूँ मैँ बिगड़ी हूँ क्या,
माँ के हाथ से फिसली हूँ क्या?
शायरी बिगड़े लोगोँ की निशानी है क्या,
आवारा लफंगो की कहानी है क्या?
पर उनके पास नहीँ होगा कोई जवाब,
क्योँकि वो देख रही हैँ ख़्वाब।
मेरे लिए एक बढ़िया लड़का ढूँढने का,
और वो भी हमारी जात-पात का...

Tuesday, July 6, 2010

हाइकु कविताऐँ...

1. रोती हुई बच्ची
हाथ मेँ गुङिया पकङे
माँ को ढूँढ रही है।

2. पत्तोँ पर ठहरी
ओस की बूँदेँ
मोती सी चमकेँ।

3. घूँघट मेँ चेहरा
कमर मेँ बच्चा,
एक रूप नारी का।

4. रेत पर कभी
टिकते नहीँ
पैरोँ के निशान।

5. हवा से पूछे
व्याकुल गोरी
पिया की खबर।

6. गाँव के बाहर
एक खण्डहर है,
जो कभी घर था।

7. वो चले गई
पर छोङ गई
कई अधूरी कहानियाँ।

Monday, July 5, 2010

आज फिर...

आज फिर,
पँछी बन दूर गगन विचरना है।
अरमानोँ मेँ पँख लगा कर फिरना है।
आज फिर,
सोए ख्वाबोँ को मन मेँ जगाना है।
खोयी यादोँ को गले लगाना है।
आज फिर,
अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी है।
दिल मेँ एक मशाल जलानी है।
आज फिर,
बेसहाराओँ का सहारा बनना है।
अपने अधिकारोँ के लिए लङना है।
आज फिर,
भ्रष्टाचार से पूरा देश बचाना है।
आतंकवाद से पूरा विश्व बचाना है।
आज फिर,
अंधविश्वास की दीवार गिरानी है।
रूढ़िवादी कालिख मिटानी है।
आज फिर,
सूने पथ पर कदम बढ़ाना है।
यूँ ही आगे बढ़के मंजिल को पाना है।

Sunday, July 4, 2010

कुछ हाइकु कविताऐँ...

1. बाग मेँ खिलती
गुलाब की कली,
नवजात शिशु सी।

2. पूस की धूप,
ओस की बूँद
पिघलती हुई।

3. तेरे सपने,
मेरी पलकोँ पर
सजते हर पल।

4. दूर कहीँ
सूरज छिपता,
सिँदूरी आँचल मेँ।

5. तेरा आना,
बहार का छाना,
जाना-पहचाना।

6. सरसोँ के फूल
करते इशारा
बसन्त ऋतु का।

7. आँख मेँ काजल
गहराता है,
रात की तरह।

Friday, July 2, 2010

मन और इच्छाऐँ...

तन के किसी कोने मेँ बसा
एक छोटा सा संसार।
मन रूपी संसार,
एक प्यारा सा संसार...
ये संसार ही तो है
अनगिनत आशाओँ का
और कई उम्मीदोँ का।
एक ऐसा संसार,
जहाँ आशाऐँ नई उम्मीदेँ जगाती हैँ
और उम्मीदेँ जीना सिखाती हैँ।
ठोकर खाना, फिर गिरना,
फिर उठना, फिर चलना,
इस संसार का एक किस्सा है,
और इस जिँदगी का हिस्सा है।
कभी देखा है गौर से
किसी चिङिया को स्वछंद आसमान मेँ
विचरण करते हुऐ?
उसके छोटे छोटे पंखोँ मेँ
विशाल से आसमान को नापने का
बुलन्द हौसला होता है।
इसी लिए तो वो किसी के रोके नहीँ रुकती,
उसके पंखोँ की उङान कभी नहीँ थमती।
बिलकुल इसी तरह
स्वछंद चिङिया रूपी अनगिनत इच्छाऐँ
हमारे मन रूपी आसमान मेँ विचरती रहती हैँ
बिना रुके, बिना थके...
इस मन की तो कोई सीमा ही नहीँ होती,
पर इच्छाओँ की क्षमता भी कम नहीँ होती।
जितना विस्त्रत मन का संसार,
उतना मुश्किल इच्छाओँ का पार।
आसमान मेँ विचरती चिङिया
और मन मेँ विचरती इच्छा
एक दूसरे की पूरक हैँ,
एक दूसरे की जरूरत हैँ।
इसलिए मन के इस संसार मेँ
साँस लेने दो इच्छाओँ को...
ये मत सोचना कि
क्या इच्छाऐँ पूरी होँगी
और अपनी मंजिल पाऐँगी?
क्योँकि
इच्छाओँ की कोई मंजिल नहीँ होती।
ये स्वतः ही पूरी हो जाती हैँ,
और स्वतः ही नई पैदा हो जाती हैँ।
जरूरत है तो बस हौसला रखने की,
और इच्छापूर्ति के लिए प्रयासरत रहने की...

Thursday, July 1, 2010

मुझको नहीँ पता...

मैँ कुछ सोच रही थी पर क्या, मुझको नहीँ पता.
इस बेहोशी से कौन जगायेगा मुझको नहीँ पता.

मेरी खामोशियाँ कौन तोङेगा मुझको नहीँ पता.
नये शब्द कौन पिरोयेगा मुझको नहीँ पता.

मेरी हँसी कहाँ खो गई मुझको नहीँ पता.
मेरी मुस्कान कौन बनेगा मुझको नहीँ पता.

कब तक बहेँगे ये आँसू मुझको नहीँ पता.
इन्हे आकर कौन पोछेगा मुझको नहीँ पता.

हमेशा ज़ख्म ही क्योँ मिले मुझको नहीँ पता.
इनमेँ मरहम कौन लगायेगा मुझको नहीँ पता.

तन्हा कटेगा कैसे ये सफ़र मुझको नहीँ पता.
मेरा हमसफ़र कौन बनेगा मुझको नहीँ पता.

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कहते हैँ कि हर रचना के पीछे कोई ना कोई प्रेरणा होती है, पर मेरी इन पंक्तियोँ के पीछे एक दुर्घटना का हाथ है.
मेरी बचपन की एक सहेली जो अपनी शादी के मात्र 5 महिनोँ बाद ही विधवा हो गई, उसे और उसके हालातोँ को देखकर अनायास ही मेरे मन मेँ ये ख्याल आ गये. इतनी कम उम्र मेँ विधवा हो जाना और उसके बाद अकेले ही सारी "अनुकूल-प्रतिकूल" परिस्थितियोँ का सामना करना वाकई मेँ अत्यन्त कष्टकारी है...