Thursday, July 15, 2010

मजबूरी है...

मम्मी के हाथ का बना खाना अब कहीँ मिलता नहीँ,
अब बिना शिकायत होटल मेँ खाना मजबूरी है।

सुबह की पहली आवाज़ पापा की सुनायी देती थी,
अब अलार्म की आवाज़ से उठना मजबूरी है।

9 से 5 बजे तक स्कूल मेँ बोरियत होती थी,
अब बारह घण्टे दफ्तर मेँ बिताना मजबूरी है।

अपनोँ के साथ रहने का सुख बड़ा निराला था,
अब अकेले परायी जगह मेँ रहना मजबूरी है,

बचपन मेँ देखे थे इन आँखोँ ने कितने सपने,
अब कई रात इन आँखोँ का जागना मजबूरी है।

एक आँसू गिरते ही माँ आँचल मेँ छुपा लेती थी,
अब चुपचाप हर गम को सहना मजबूरी है।

बचपन की बातेँ, बचपन की यादेँ अच्छी लगती है,
हर रात पुरानी तस्वीरोँ को देखना मजबूरी है।

'आगे बढ़ो, सौ साल जीयो'- आशीष ये मिलते हैँ,
अब लगता है हर साल बड़ा होना मजबूरी है।

2 comments:

  1. Simply awasome.... This poem touched my heart..
    U Rocks!!!!

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  2. आज तो पहले से भावुक हो रहा था, इस कविता ने विभोर कर दिया

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